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शंका-समाधान १ की समीक्षा
विचारों, वचनों और प्रवृत्ति रुप पुरुषार्थक भी विरुद्ध है। इसपर उत्तरपक्षको सोचना चाहिए। वास्तवमें फोटके सृजनमें जो महत्व कपड़ेका है वही और उतना ही महत्व दर्जी, मशीन आदि बाह्य सामग्रीका है। इसे हमें भूलना नहीं चाहिए। कथन ५२ और उसकी समीक्षा
(५२) आगे तक न. पृ० ६४ पर ही उत्तरपक्षने लिखा है कि "अपरपक्ष वदि इस तथ्यको समझ ले कि केवल द्रव्यशक्ति जैन दर्शन में कार्यकारी नहीं मानी गई है, क्योंकि वह अकेली नहीं पाई जाती है और न केवल पर्यायशक्ति ही जैन दर्शनमें कार्यकारी मानो ई है, क्योंकि वह भी अकेली नहीं पाई जाती। अतएव प्रतिविशिष्ट पर्यायशक्तियुक्त असाधारण द्रव्यशक्ति ही जैन दर्शनमें कार्यकारी मानी गई है। तो कपड़ा कब कोट बने ग्रह भी उसे समझ में आ जाये और इस बातके समझमें आनेपर. उसके विशिष्ट कालका भी निर्णय हो जाये ।" इसकी समीक्षामें कहना चाहता हूँ कि जैन दर्शनकी यह जो मान्यता है कि पर्यायशक्ति विशिष्ट द्रव्य शक्ति ही कार्योत्पत्तिमें कार्यकारी होती है उसे पूर्वपक्ष भी नहीं मुठलाता है । परन्तु द्रव्यमें उस पर्यायशक्तिकी उताप्ति अनुकूल बाह्य निमित्त सामग्रीकी सहायतासे ही होती है, यह भी ध्यानमें रखना आवश्यक है । इससे गिद्ध होता है कि उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विशिष्ट वस्तुकी कार्योत्पत्तिमें निमित्तोंका जितना बोलबाला है। उतना निमित्तोंके आधारपर उत्पन्न होने वाली पर्यायशस्तिका नहीं। यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि यद्यपि पर्यायशक्ति स्वयं कार्यरूप होनेसे उसकी उत्पत्ति बाह्य निमित्तशामग्रीके आधारपर ही होती है, तथापि द्रव्यशक्तिके साथ उसे भी जो कार्योत्पत्तिमें कारण माना गया है उसका कारण यह है कि उस कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय और कार्यमें पूर्वोत्तरभाव पाया जाता है । कथन ५३ और उसकी समीक्षा
(५३) आगे उत्तरपक्षने प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है, इसकी पुष्टिके लिए हरिवंशपुराण सर्ग ५२ के लोकों ७१-७२ को भी उद्धृत किया है जिनका अर्थ उसने यह किया है कि “जब तक उत्कृष्ट देव बल है तभी तक चतुरंग बल, कालपत्र.मित्र और पौरुष कार्यकारी है। देवबलके विफल होनेपर काल और पौरुष आदि सब निरर्थक है ऐसा जो विद्वत्पुरुष कहते हैं वह यथार्थ है, अन्यथा नहीं ॥७१-७२।।"
इस सम्बन्धमें मेरा कहना है कि हरिवंशपुराण, सर्ग ५२ के उक्त दोनों श्लोक ७१-७२ स्पष्ट वतला रहे हैं कि चतुरंगबल, काल, पुत्र, मित्र और पुरुषार्थ कार्योत्पत्तिमें कार्यकारी होते हैं, इसे उत्तरपक्षने भी उक्त दोनों श्लोकोंका अर्थ करते हुए स्वीकार किया है। केवल इतनी बात है कि चतुरंगबल आदिकी कार्यकारिता तभी तक है जब तक देववलका सद्भाव रहता है, जो निर्विवाद है। परन्तु इससे यह कदापि सिद्ध नहीं होता कि देवबल चतुरंगबल आदि बाह्य सामग्रीके समागमके बिना ही कार्यकारी होता है। इसलिये इनके आधारपर उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिमें बाह्य सामग्रीको अकिचित्करताको कसे सिद्ध कर सकता है ? इसके साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि हरिवंशपुराणके उक्त दोनों श्लोकोंमें दैवबलका अर्थ प्रधानतया वस्तुकी द्रव्यशक्तिके रूपमें ही अभिप्रेत है, पर्यायशक्तिके रूपमें नहीं, क्योंकि उक्त श्लोकों में इस बातका कोई संकेत नहीं पाया जाता है कि देबबलका अर्थ यहाँ कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय विवक्षित है उसका कारण भी यही है कि वह काव्यिवहित पूर्व पर्याय निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका सहयोग प्राप्त होनेपर ही निष्पन्न होती