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शंका-समाधान १ की समीक्षा उत्पत्ति होती है, क्योंकि जो भी द्रव्य की उत्तर पर्याय होगी वह उसकी स्वाभाविक योग्यताके अनुसार ही होगी। पर हाँ, निमितोंका सहयोग जैसा होगा वैसी ही पर्याय उसकी स्वाभाविक योग्यताके आधारपर होगी । इसका आशय यह है कि निमित्त त्यमें ऐसी पर्यायको उत्पन्न नहीं कर सकता है जिसकी स्वाभाविक योग्यता उस द्रव्यमें न हो, लेकिन जिस पर्यायके उत्पन्न होनेकी योग्यता द्रव्यमें विद्यमान है वह पर्याय तभी उत्पन्न हो सकती है जब वह निमित्तोंका सहयोग पाझर अपने स्वकालमें पहुँच जायेगा और तब भी उसके अनुकूल निमितोंका सहयोग मिलनेपर ही वह उत्पन्न होगी। कार्यकारणमात्रकी व्यवस्था इसी प्रकार पायी जासी है। उत्तरपक्षके दृष्टिकोणका अन्य प्रकारसे निराकरण
___ कार्योत्पत्ति के विषबमें उत्तरपक्षका जो यह दृष्टिकोण है कि "कार्यको उत्पादक कार्यकालको योग्यता ही है. निमित्त नहीं' इसका निराकरण अन्य प्रकारसे भी किया जाता है।
वस्तुका स्वभाव परिणमन करनेका है अर्थात् वस्तुमें परिणमन करने की या परिणत होनेकी स्वाभाविक्र चोग्यता है। इसके आधार पर ही उसमें परिणमन हुआ करता है तथापि उसका वह परिणमन दो प्रकारसे होता है-एक परिणमन स्वनिमित्तक (परनिमित्तानपेक्षा) होता है और दूसरा परिणमन परनिमित्तसापेक्षा होता है। परनिमित्तानपेक्षा परिणमनको स्वनिमित्तक और परनिमित्तसापेक्ष परिणमनको स्वपरप्रत्यय परिणमन प्रतिपादित किमा गया है।
वस्तुका स्वनिमित्तक परिणमम व्यवहारकालो भेद--समयके रूपमें विभक्त होकर सतत षड्गुणहानिबुद्धिरूप होता है और उसका स्वपरप्रत्यय परिणमन व्यवहारकालके ही भेद-समय, आवली, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्षा, मास, ऋतू, अयन और वर्ष आदिके रूपमें विभक्त होकर सलत षड्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमनसे पृथक् परिणमनके रूपमें होता है।
स्वप्रत्यय और स्वारप्रत्यय दोनों ही प्रकारके दो आदि परिणमन सतत एकके पश्चात् एक रूपमें होते हैं अर्थात् दोनों ही प्रकारके दो आदि परिगमन कभी भी युगपत् (एक साथ) नहीं होते। हो, सभी स्वप्रत्ययपरिणमन परनिमित्तानपेश होने के कारण नियतक्रमसे ही होते हैं जबकि सभी स्वपरप्रत्ययपरिपामन परनिमित्तसापेक्षा होनके कारण यथायोग्य परनिमित्तोके समागमके अनुसार नियतक्रम और अनियतक्रम दोनों रूपसे होते है।
स्वपरप्रत्ययपरिणमनोंकी नियतक्रमता और अनियतक्रमताको इस तरह समझा जा सकता है कि जीवके जो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप विविध प्रकारके परिणमन होते है वे यथाक्रम क्रोध, मान, मावा और लोभ रूप पद्गलकोके उदयके निमित्तसे होते हैं। अर्थात जब तक जीवमें क्रोधकर्मका उदय विद्यमान रहता है तबतक उसका कोषरूप परिणमन होता रहता है और जब उसमें क्रोधकर्मके उदयका अभाव होकर
१. 'विविध उत्पादः स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमितस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्याद
भ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतितया या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेतेषामुत्पादो व्ययश्च । परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवमाहनहेतृत्वात्याणे क्षणे तेषां भेदात्ततित्वमपि भिन्न मिति परप्रत्ययापेका उत्पादो विनाशश्च व्यवलियते । -सर्वार्थसिद्धि ५-७ ।