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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा मान, माया या लोभ इन तीनों कर्मों से किसी एकका उदय होता है तब उसका वह परिणमन भी यक्रम मान, माया या लोभ रूप होता है।
अब यदि उत्तरपक्षकी मान्यताके अनुसार जीवमें होनेवाले क्रोध आदि परिणमनोंकी उत्पत्ति कार्यकालकी योग्यताके अनुसार मानी जाये और क्रोध आदि कर्मोंके उदयको वहाँ पर सर्वया अकिंचिकर ही मान लिया जाये तो जिस जीवक्री वर्तमान समयमें क्रोधरूप परिणति हो रही है उसके पूर्व समयमें कारणरूपसे और उत्तरसमयमें कार्यरूपसे क्रोधरूप परिणति ही उस जीवकी स्वीकार करना अनिवार्य हो जायेगा । इस तरह अनादि कालसे अनन्त काल तक उस जीवकी सतत क्रोधरूप परिणति होती रहनी चाहिए अर्थात् उसमें न तो कभी मान, माया, या लोभरूप परिणति होगी और न क्रोश्ररूप परिणतिका सर्वथा अभाव होकर उसकी शुद्ध स्वभावरूप परिणति ही कभी हो सकेगी। इस तरह विश्वकी सभी वस्तुयें वर्तमानमें जिस रूपमें रह रही है उनका मतत उसी रूपमें रहनेका प्रसंग उपस्थित हो जावेगा। लेकिन विश्वकी सभी वस्तुओंकी इस प्रकारको स्थिति मानवमात्रक अनुभव, इन्द्रियप्रत्या, तर्क और आगम प्रमाणों के विपरीत ही निर्णीत होती है। इमलिये कार्योत्पत्तिमें कार्यकालकी योग्यताको कारण न मानकर परिणमनोंकी विविधताके लिये निमित्तोंको कारण मानना अनिवार्य है। यह सत्य है कि बस्तको स्वाभाविक योग्यताके बिना निमित्त वस्तुमे कार्योत्पत्ति के प्रति असमर्थ रहते हैं। अतः पस्तुमें कार्योत्पत्तिके अनुकूल स्वाभाविक योगापाव स्वीमा नाकी नानपार है । और बन स्वाभाविक योग्यता नित्य उपादानशक्तिके रूपमें द्रव्यशक्ति ही हो सकती है, अनित्य उपादानशत्ति के रूपमें पर्यायशक्ति, जिसे कार्यकालकी योग्यता कहा जाता है, नहीं हो सकती है, क्योंकि कार्यरूप होने के कारण उसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता है । इस विवेचनले प्रकट है कि नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यशक्तिक पमें कार्योत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यताका सद्भाव व उक्त अवरारपर अनुकूल प्रेरक और उदासीन निमित्तोंका राद्भाव तथा बाधक निमित्तोंका अभाव ये सभी वस्तुमें कार्योत्पत्तिके साधक होते हैं। यहाँ इतना और ध्यातव्य है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड के पूर्वोक्त कथनके अनुसार अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिविशिष्ट नित्य उपादानशक्तिरूप द्रव्यक्ति कार्योत्पत्तिमें साधक होनेसे अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्यायशक्तिको भी कार्यकालकी योग्यताके रूपमें कार्योत्पत्तिकी साधक मानना चाहिए।
यदि कहा जाए कि मिट्टीस जो घटको उत्पत्ति होतो है वह स्थूल रूपसे स्थास, कोश और कुशूल पर्यायोंके क्रमसे ही होती है व सूक्ष्मरूपस एक-एक क्षणकी पर्यायोंके क्रमसे होती है। इसलिए घटोत्पत्तिमें पूर्वपर्याय और उत्तरपर्यायमें उत्पाद्योत्पादकभावरूप कार्यकारणभाव मानना आवश्यक है तो ऐसी मान्यता भी युक्तिमुक्त नहीं है, क्योंकि यदि पूर्व और उत्तरपर्याय में उत्पाद्योत्पादकभावरूप कार्यकारणभाव स्वीकार किया जाए तो जिस प्रकार घटको मिट्टीका घट कहा जाता है उसी प्रकार कुशलकी उत्तर पर्याय होनसे घटको कुशूलका घर कहना भी अनिवार्य हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि पूर्व पर्याय उत्तर पर्यायवी उत्पत्तिमें नियामक नहीं है। ऐसी स्थितिमें मिट्टीसे होनेवाली घटोत्पत्ति में भी कार्यकालकी योग्यताको उत्पायोत्पादकभावके आवारपर कारण मानना असंगत है। तीसरी बात यह है कि लोकमें कुम्भकार द्वारा अपना क्रियाव्यापार बीचमें रोक देनेपर घट अधूरा देखा जाता है अथवा दण्डके पातरी बोचमें ही घटका बिनाश देखनेमें आता है तथा कुम्भकारकी कुशलता और अकुशलताका प्रभाव उस उत्पन्न होनेवाले घटमे स्पष्ट दिखाई देता है। इससे एक तो कार्यकालकी योग्यताको कार्य नियामवता समाप्त हो जाती है । दूसरे,