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जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
लगाया जा सकता है। इस प्रकार कार्यं अपने कारणोंका मात्र शापक ही हो सकता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि जब प्रकाश या धूम अपने उपादानके अनुसार उत्पन्न हुआ तो दीपक या अग्निको स्वयमेव ही उसके निर्मित रूपसे उपस्थित होना पड़ा। जिसको प्रकाश या घूमकी आवश्यकता होती उसको उसके कारणभूत दीपक या अग्निको अपने पुरुषार्थ द्वारा जुटाना पड़ता है। अतः आपका उपर्युक्त सिद्धान्त प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध है ।
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यदि आपका उपर्युक्त सिद्धान्त माना जायगा तो कार्य कारणभाव बिल्कुल उल्टा हो जायगा, क्योंकि जब स्वयमेव उपादानसे होनेवाले कार्यके अनुसार कारणों को उपस्थित होना पड़ा तो वह कार्य उन कारणों की उपस्थिति में कारण हो गया अर्थात् कार्य कारण बन गया और कारण कार्य बन गये। इसका फलितार्थ यह हुआ कि उपरोक्त दृष्टान्तोंगे भावलिंग, प्रकाश या धूम (जो कार्य हैं ) द्रव्यलिंग, दीपक या अग्नि के होने में कारण बन गये, क्योंकि जब भावलिंग आदि अपने उपादानसे हुए तो अनिवार्यरूपसे द्रयलिंग आदिको होना पड़ा। यह बात आगम तथा प्रत्यक्ष विरुद्ध है ।
'उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है। केवल यह मान्यता भी ठीक नहीं है । भावलिंग क्षायोपशमिक भाव है । इसको प्राप्ति चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमरूप निमित्तके अनुसार ही उपादान में होती है ।
तत्र क्षयोपशमेन युक्तः क्षायोपशमिकः । श्री पञ्चास्तिकाय गा० ५६ की टीका अर्थ - फर्मो के क्षयोपशम सहित जो भाव है वह क्षायोपशमिक भाव है ।
इस भाको, पौद्गलिक कर्मके क्षयोपशम द्वारा जन्य होनेके कारण ही कथचित् मूर्तीक तथा अrfeज्ञानका विषय माना है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशम ही भात्रलिंग आत्मामें उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। अतः आपका यह फलितार्थं निकालना कि निमितकी प्राप्ति उपादान के अनुसार होती है' आगम विरुद्ध है ।
आपके उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार जब उपादान अपने अनुसार कार्य कर ही लेता है, तब निमित्तकी आवश्यकता हो क्या रह जाती है। चूँकि आगम में सर्वत्र यह प्ररूपण किया गया है कि निमित्त तथा उपादान रूप उभय कारणोंसे ही कार्य होता है और निमित्त हेतु कर्ता भी होता है, अतः शब्दों में तो आपने उसे ( निमित्तको ) इन्कार नहीं किया, किन्तु मात्र शब्दों में स्वीकार करते हुए भी आप निमित्तभूत वस्तु में कारणत्वभाव स्वीकार नहीं करते हैं तथा निमित्तको अकिचित्कर बतलाते हुए मात्र उपादानके अनुसार ही अर्थात् एकान्ततः मात्र उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं । आगमके शब्दों को केवल निबाहने के लिये यह कह दिया गया है कि निमित्त की प्राप्ति उपादानके अनुसार हुआ करती है। ताकि यह न समझा जाय कि आगम माननीय नहीं है। इस एकान्त सिद्धान्तको मान्यता से यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्त कारण मात्र दशों में ही माना जा रहा है, वास्तव में उसको कारणरूपने नहीं माना जा रहा है ।
हमने अपनी दूसरी प्रतिशंका में यह स्पष्ट किया था कि प्रवचनसारकी गाथा १६९ तथा उसकी श्री अमृतचन्द्रकृत टीकामें जो 'स्वयं' 'अपने आप' न होकर 'अपने रूप' ही है। इसके अनन्तर पुनः आपने अपने 'स्वयभेव' पदका अर्थ 'स्वयं ही' है अपने रूप नहीं ।
शब्द आया है उसका अर्थ प्रत्युत्तर में यह कहा है कि