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शंका १ और उसका समाधान
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इसके विषय में हमारा कहना है कि आगम में व्यवहार चारित्रको निश्चय चारित्रमें कारण स्वीकार किया गया है—
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरन्स्त्वम् आध्यात्मिकस्य तपसः परिवृर्हणार्थम् ॥
- स्वयंभू स्तोत्र, कुन्थजिन स्तुति, पद्य ८३ अर्थ----३ भगवन् ! आपके लिए हुई बाह्य तपका आवरण किया था । इस विपयके अन्य अनेकों प्रमाण प्रश्न नं ३, ४ व १३ के उत्तरोंमें देखनेको मिलेंगे । उपरोक्त आपके कथनमें भी प्रकारान्तरसे यह तो स्वीकार कर प्राप्ति के लिए द्रव्यलिंग अनिवार्य कारण है अर्थात् द्रव्यलिंग ग्रहण किये सकती है। जहाँ इन दोनोंकी एक साथ प्राप्ति बतलाई गई है किया जाता है और कुछ क्षण पश्चात् ही भावलिंग हो जानेसे, एक साथ प्राप्ति कहलाती है। यदि बिल्कुल एक साथ भी है और भावलिंग कार्य है । जैसे
छहढाला चौथी ढाल छन्द २
युगपत् होते हू प्रकाश दीपक ते होई। भावलिगको प्राप्ति के लिए जीव अपने पुरुषार्थ द्वारा अनिवार्य कारणरूपसे द्रव्यलिंगको ग्रहण करता है । भावलिंगको प्राप्तिके समय व्यलिंग स्वयमेव, बिना जीनके पुरुषार्थ के आकर उपस्थित नहीं हो जाता है | अतः यह कहना ठीक नहीं है कि 'भावलिंग होने पर लिंग होता है ।' प्रत्युत भावलिंग होने से पूर्व द्रगको तो उसकी उत्पत्ति के लिये कारणरूपसे मिलाया जाता है । द्रव्यलिंगके ग्रहण करनेपर ही भावपत्ति हो सकती है. इसके ग्रहण किये बगैर उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । जैसे धूम्र अग्निके होनेवर ही हो सकता है, अग्निके बिना नहीं हो सकता है अपितु अग्नि के
कारण नहीं है। क्षेत्रकी अपेक्षा
होनेपर हो भी या न भी हो । उसके साथ अन्य कारणोंकी भी कर्मभूमिका आर्य खण्ड, कालकी
किन्तु भाव लिगकी उत्पत्तिके लिए मात्र द्रव्यलिंग ही आवश्यकता है— जैसे चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम अपेक्षा दुषमा- सुषमा या दुषभा काल तथा स्वयं जीवका पुरुषार्थ आदि । यदि अन्य यह सब या इनमें से कोई कारण नहीं मिलेगा तो भावलिंगकी उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि कार्यकी उत्पत्ति समस्त कारणों के मिलने पर ही होती हैं । किन्तु अन्य कारण न मिलनेपर कार्य न होने का यह अर्थ नहीं कि जो कारण मिले हैं उनमें कारणत्व भाव (धर्म) नहीं है । यदि इनमें कारणत्व न हो तो इनके बगैर भी, अन्य कारणोके मिल जाने मात्र से ही कार्य हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। अतः इनमें स्वभावतः वास्तविकरूप कारणत्व शक्ति सिद्ध हो जाती है और इसी प्रकार अन्य कारणों में भी सिख हो जाती है। कारणका लक्षण भी मात्र इतना ही है कि जिसके बिना कार्य न हो ।'
जेण विणा जंण होदि चैव तं तस्स कारणं 1 - श्री धवल १४ ९०
लिया गया है कि भावलिंग की बिना भावलिंगकी प्राप्ति नहीं हो वहाँ भी वास्तव में द्रव्यलिंग पूर्व में ही ग्रहण वह अन्तर ज्ञानमें नहीं आता है, इस कारण प्राप्ति मानी जाती है, तब भी द्रव्यलिंग कारण
अर्थ - जिसके बिना जो नहीं होता है वह उसका कारण है ।
यह बात दूसरी है कि कार्य के हो जाने पर उस कार्यको देखकर यह अनुमान लगा लिया जाय कि इस कार्यके लिए जो-जो कारण आवश्यक ये वह सब मिले हैं, क्योंकि सर्व कारण मिले बिना उस कार्यका होना असम्भव था । यह भी अनुमान हो जाता है कि जो कारण साथ में रहनेवाले हैं वे साथ में हैं और जो दोगकका या धूमको देखकर अग्निका अनुमान
पूर्व में हो जानेवाले हैं वे हो चुके हैं । जैसे प्रकाश को देखकर