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जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादलाः ।
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ इस पधको अपने अभिप्रायके अनुसार अर्थ कर प्रश्नके उत्तर में प्रमाणरूपसे उपस्थित किया है।
इस पद्य की प्रमाणता और अप्राणता तथा आपके द्वारा स्वीकृत इसके अर्थकी समालोचना सो हम उसी प्रश्न के प्रकरणमें ही करेंगे, यहाँ तो सिर्फ हमें इतना ही कहना है कि स्वामी समन्तभद्रकी 'बाह्म तरोपाधिसमग्रतेय' इस कारिकामें पठिल 'द्रव्यगतस्वभावः' पदका अर्थ जो आपने समझा है यह ठीक नहीं है । उसका अर्थ तो यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें परिणमन करनेके विषय में दो प्रकारके स्वभाव विद्यमान हैं। उनमें से एक स्वभाव तो यह है कि वह कितने ही परिणमनों (पड्गुणहानिबुद्धिरूप परिणमनों) की केवल अपने ही बलपर क्षण-क्षणमें उत्पत्ति होनेकी योग्यता रखता है । और उसका दूसरा स्वभाव यह है कि कितने ही परिणमनोंको अनुकूल निमित्तोंके सहयोगपूर्वक यथायोग्य प्रत्येक क्षणमें अथवा नाना क्षणों के एक समूहमें उत्पत्ति होनेकी योग्यता उसमें पायी जाती है। ये दोनों वस्तुके स्वभाव ही हैं अर्थात् निमित्त की अपेक्षाके बिना फेवल उपादानके अपने ही बलपर परिणमनका होना और निमित्तोंका सहयोग लेकर उपादानके परिणमनका होना ये दोनों ही स्वभाव द्रव्यगत है ।
आगे आपने लिखा है कि 'यदि प्रत्येक क्षणमें निमित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार न मानी जाय तो मोक्ष विधि नहीं बन सकती है।' इस विषयमें हमारा कहना यह है कि जीवकी मोक्षपर्याय स्वप्रत्यय पर्याय न होकर स्वपरप्रत्यय पर्याय ही है । कारण कि मुक्तिका स्वरूप आगमग्रन्धोंमें दृश्यकर्म, नो-कर्म और भावकर्मोके क्षपणके आधारपर ही निश्चित किया गया है।
बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। -तत्वा० अ० १०, सूत्र २ ।
अर्थ-संवर और निर्जरापूर्वक सम्पूर्ण कोका क्षय हो जाना ही मोक्ष का स्वरूप है। इस तरह आगामी कर्मोंके आस्रवका निरोध और विद्यमान कर्मोकी निर्जराको आत्माको पूर्ण स्वातंत्र्यदशाके विकसित होने में निमित्त रूपसे जैन संस्कृतिमें स्वीकृत किया गया है। इसी प्रकार चरणानुयोगपर आधारित पंचमहानतादि बाह्म अर्थात् व्यवहार चारित्र और करणानुयोगपर आधारित आत्मविशुद्धि स्वरूप अन्तरंग अर्थात् निश्चय चारित्रके समन्वयको ही मुक्तिका साधन जैन संस्कृति में स्वीकार किया गया है। इस तरह जब जीक चरणातुयोग और करणानुयोगके अनुसार पुरुषार्थ करता हुआ अपने भाव शुद्ध करता है तब इन शुद्ध भादोंके निमित्तसे नवीन कर्मोंका संबर तथा बंधे हुए कोंकी निर्जरा होती है और इस प्रकार घातिया कर्मोका अय कर केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है। तथा अन्तमें शेष सभी प्रकारके कर्मोंका नाश कर मुक्ति प्राप्त कर लेता है | अतः आगम सम्मत सिद्धान्तानुसार तो मोक्ष की प्राप्तिमें कोई बाधा नहीं आती । किन्तु आपके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तके अनुसार जोब पुरुषार्थ करने के लिये स्वतन्त्र नहीं रहता है, वह तो नियतिके अधीन रहता है, अतः मोशकी विधि नहीं बन सकती है।
___ आगे आपने लिखा है कि 'यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंगके प्राप्त होनेके पूर्व ही दयलिंग स्वीकार कर लेता है, पर उस द्वारा भावलिंगकी प्राप्ति द्रव्यलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो, ऐसा नहीं है । किन्तु जब उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त लिंग रहता ही है । तीर्थकरादि किसी महान् पुरुषको दोनोंको एक साथ प्राप्ति होती हो, मह बात अलग है ।'