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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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उसको आत्मख्याति टोका)। इसकी समीक्षामें मैं यह कहना चाहता हूं कि "एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको पर्यायमें विशेषता उत्पन्न कर देता है" यह कहना एक द्रव्यके गुण-धर्मका टूरारे द्रव्यमें प्रवेश न हो सकनेके कारण तो वास्तवमें परमार्थभत नहीं है, परन्तु उपादानके वार्यके प्रति निमित्तका कार्य पूर्वोक्त प्रकार प्रेरक उदा म हि.4: परे ३ माभूत ही हैं तो वैसा कहना कल्पनारोपित मात्र नहीं है। (देखो समयसारमाथा ९१, १०५, १०६, १०७ और १०८ )
तात्पर्य यह है कि समयसारगाथा ९१ यह बतलाती है कि आत्माफे रागादि रूपसे परिणत होनेपर ही पुद्गलका कर्मरूप परिणमन होता है, इसलिये पुद्गलके कर्मरूप परिणमनके प्रति आत्मामें स्वीकृत निमित्तकारणता सहायक होने रूपसे परमार्थभूत ही सिद्ध होती है, अकिंचित्कर रूपसे कल्पनारोपित मात्र सिद्ध नहीं होती । इसी तरह रामयसारगाथा १०५ यह बतलाती है कि जीवके हेतु होनेपर ही उसके स पुद्गल कर्मका बन्ध होता है, इसलिये जीय उपचारसे पदगल कर्मका का है। इससे निर्णीत होता है कि उपचरिप्तकर्तृत्व निमित्त के उपादानकी कार्योत्पत्तिके प्रति सहायक होनेके कारण उपचरित रूपमें परमार्थभूत ही होता है, कल्पनारोपित भाव नहीं होता। इसी प्रकार समयसारगाथा १.६ यह बतलाती है कि जिस प्रकार युद्ध में योद्धाओंकी प्रवृत्ति राजाके आदेश से होनेके कारण राजाको ब्यवहारसे (उपचारसे) युद्धका कर्ता मानना कल्पनारोपित मात्र न होकर नुपचरित रूपमें परमार्थभूत ही होता है उसी प्रकार पुद्गलकी ज्ञानावरणादिरूप परिणति जीवके रागादि परिणामोंके आधारपर होनेके कारण जीवको भी व्यवहारसे (उपचारसे) ज्ञानावरणादि कोका कर्ता मानना कल्पनारोपित मात्र न होकर उपचरित रूपमें परमार्थभूत ही होता है। इसो पकार समयसार गाया १०७ यह बतलाती है कि आत्मा पुद्गलको उतान्न करता है आदि कथन निश्चयनयसे परमार्थभूत न होकर भी व्यवहारनयसे तो परमार्थभूत ही होता है, कल्पनारोपित मात्र नहीं होता । इसी प्रकार समयसारगाथा १०८ यह बतलाती है कि जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा होती है (यथा राजा तथा प्रजा) इस लोकोक्तिके आधारपर जिस प्रकार राजाको प्रजाके दोषोंका और गुणोंका व्यवहारसे (उपवारसे) उत्पादक मानना कल्पनारोपित मात्र न होकर उपचरितरूपमें परमार्थभूत ही है उसी प्रकार जीवको अन्य द्रव्यके दोषों और गुणों का व्यवहाररो उत्पादक मानना भी कल्पनारोपित मात्र न होकर उपपरितरूपमें परमार्थभूत हो है ! इस तरह ये सभी गाथायें इस बातको बतलाती हैं कि एक वस्तु के गुणधर्मका दुसरी वस्तुमें प्रवेश न होते हुए भी एक वस्तुकी दूसरी वस्तुके कार्योल्पादन में सहायक होने रूपसे निमित्तकारणनाको कल्पनारोपित मात्र कदापि नहीं माना जा सकता है ।
एक बात और है कि यदि एक वस्तु की अन्य वस्तुके कार्योत्पादन में सहायक होने रूप निमितकारणताको उस रूपमें परमार्थभूत न मानकर केवल कल्पनारोपित मात्र माना जाता है तो उपादानमें कार्योत्पत्तिका होना असंभव हो जायेगा । यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है।
(४) उत्तरपक्षने चौथा विकल्प "उपादान अनेक योग्यता वाला होता है, इसलिये बाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्य करने में ही प्रवृत्त करती रहती है क्या वह सहयोगका अर्थ है ?" यह उठाकर इसका खण्डन इन शब्दोंमें किया है कि "किन्तु अपरपक्षको यह तर्कणा असंगत है, क्योंकि आगममें विशिष्ट पर्याय युक्त द्रव्यको ही कार्यकारी माना गया है । (देखो, अष्टसहस्री १०१५०, स्वामिकातिकेयानुपेक्षा माथा २३०, श्लोकवार्तिक पृ० ६९ तथा प्रभेयकमलमार्तण्ड पृष्ठ २०० आदि।" इसकी समीक्षामें मैं यह कहना