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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चाहता हूँ कि यद्यपि विशिष्ट पवियुक्त द्रव्य ही कार्यकारी होता है, परन्तु इस विशिष्ट पर्यायकी उत्पत्ति बाह्य सामग्रीका सहयोग मिलनेपर ही होती है। (देखो-प्रमेयकमलमार्तण्ड २.२ पत्र ५२ शास्त्राकार निर्णयसागरीय प्रकाशम) । इस तरह कहा जा सकता है कि पूर्वपक्षकी "उपादान अनेक योग्यता वाला होता है और बाह्य सामग्री उसे एक योग्यता द्वारा एक कार्यमें प्रवृत्त करती है ।'' यह तर्कणा असंगत नहीं है।
(५) उत्तरपक्ष ने पांचवाँ विकल्प "क्या क्षेत्रप्रत्यासत्ति या भावप्रत्यासत्तिके होनेपर उपादानमें कार्य होता है ?" यह सहयोगका अर्थ है ?" यह उठाकर इसका खण्डन इन शब्दों में किया है कि "किन्तु सहयोगका यह अर्थ करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवाप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्तिके होनेपर अन्य तथ्य नियमसे अन्य द्रश्यके कार्यको उत्पन्न करता है ऐसा कोई नियम नहीं है। (देखो-श्लोकवार्तिक पृ० १५१)।' इसकी समीक्षामें मेरा कहना यह है कि पूर्वपक्षको इस संबंधमें उत्तरपक्ष के साथ कोई विद्याद नहीं है।
उत्तरपक्षने आगे लिखा है कि "इस प्रकार सहयोगका अर्थ उक्त प्रकारसे करना तो बनता नहीं। उक्त विकल्पोंके आवारपर जिननी भी तर्कणायें की जाती हैं वे सब असत ठहरती हैं। अब रही कालप्रत्यासत्ति, सो यदि अपरपक्ष 'बाल सामग्री उपादानके कार्य में सहयोग करती है इसका अर्थ कालप्रत्यासत्ति करता है तो उसके द्वारा सहयोगका यह अर्थ किया जाना आगम, तर्क और अनुभवसम्मत है, क्योंकि प्रकृत में "फालप्रत्यासत्ति" पद जहाँ कालकी विवक्षित पर्यायको सूचित करता है वहां वह विवक्षित पर्याययुक्त
ह्याभ्यन्तर सामग्रीको भी सचित करता है। प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रश्यको अपना कार्य करनेके लिए ऐसा योग नियमसे मिलता है और उसके मिलनेपर प्रत्येक समयमें प्रतिनियत कार्यको उत्पत्ति होतो है,ऐसा ही दृश्य स्वभाव है । इसमें किसीका हस्तक्षेप करना संभव नहीं । स्पष्ट है कि प्रकृतमें निमित्तके सहयोगकी चर्चा करके अपरपक्षने स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनोंके विषयमें जो कुछ भी लिखा है वह आगम, तर्क और अनुभवपूर्ण म होनेसे तत्त्वमीमांसामें ग्रहण नहीं माना जा सकता है।" आगे इसको समीक्षा की जाती है
उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्यमें जो यह लिखा है कि "इस प्रकार सहयोगका अर्थ उक्त प्रकारसे करना तो बनता नहीं । उक्त विकल्पोंके आधारगर जितनी भी तर्कणायें की जाती हैं वे सब असत् ठहरती हैं।" सो इस विषयमें मेरा कहना यह है कि उक्त विकल्पोंमें सहयोग शब्दसे जो अर्थ उत्तरपक्षने कल्पित किये हैं उनमें और उनके स्लण्डनमें आगमके अनुसार उत्तरपक्षके साथ पूर्वपक्षका किस प्रकारका मतसाम्य और मतभेद है इसका दिग्दर्शन उपर किया जा चुका है । इसके आगे उसने (उत्तरपलने) जो यह लिखा कि "अब रही कालप्रत्यारात्ति सा यदि अपरपक्ष बाह्य सामग्री उपादानके कार्य में सहयोग करती है" इसका अर्थ कालप्रत्यासत्ति रूप करता है तो उसके द्वारा सहयोगका यह अर्थ किया जाना आगम, तर्क और अनुभव सम्मत है"। सो पूर्वपक्षको उत्तरपक्षके इस कथनमें तो सहमति है, परन्तु उसके आगे उसका यह लिखना कि "क्योंकि प्रकृति कालप्रत्यासत्ति पद नहीं कालको विवक्षित पर्यायको सूचित करता है वहां वह विक्षितपर्याययत्रत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको भी सूचित करता है। प्रत्येक समयमें प्रत्येक द्रश्यको अपना कार्य करनेके लिए ऐसा योग नियमसे मिलता है और उसके मिलनेपर प्रत्येक समयमै प्रतिनियत कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा व्यस्वाभाव है। उसमें किसीका हस्तक्षेप करना सम्भव नहीं है"। आगम विरूद्ध है, क्योंकि कालप्रत्यासत्तिका यह अभिप्राय नहीं है जो उत्तरपक्षने अपने उपर्यस्त वक्तव्यमें स्वीकार किया है। किन्तु उसका यह अभिप्राय है कि उपादानको जिस कालम जिस प्रकारको निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका योग मिलता