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शंका-समाधान २ की समीक्षा
१९५ जीवित शरीरकी क्रियाका साक्षात् निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध स्थापित होता है। यद्यपि जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियारूप लीवित शरीरकी क्रिया जीवको शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणतियोंमें साक्षात् निमित्तकारणभूत सरोरके सहयोगसे होनेवाली जीवको क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रिया में निभिसकारण होती है, अतः शरीरकी उस क्रियाको भी परम्परया जीवको सम. अषभ और परिणतियों में निमि माना जा सकता है। परन्तु प्रकूसमें शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियारूप जीवित शरीरकी क्रियाका ग्रहण ही अगेक्षित है, जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रियारूप जीवित पारीरकी क्रियाका ग्रहण अपेक्षित नहीं। इसका कारण यह है कि जीवको क्रियावती शमितके परिणमनस्वरूप और शरीरके अगस्त द्रव्यमन, वचन और कायके सहयोगसे होनेवाली शुभ-अशभ प्रवत्तिरूप क्रियायें कर्मबन्धका कारण होतो है और उनमेसे शुभ प्रवृत्तिरूप क्रियाओंके साथ जीवमें पूर्वोक्त प्रकार यदि यथायोग्य संसार, शरीर और भोगोंसे निवृत्तिपूर्वक आत्मोन्मखता आ जावे तो कर्म बन्धके साथ वह संसार, शरीर और भोगोंसे निकृप्ति जीवमें कर्मो के संवर और निर्जरणका कारण होती है। जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरके अंगभत द्रव्यमन, वचन और कायकी क्रियाओंका जीवके कर्मबन्ध या कर्मकी निर्जराके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, यह बात पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोंनोंको अभीष्ट है और आगमसम्मत भी है। इसे प्रकृत प्रश्नके सामान्य समीक्षाप्रकरणमें विस्तारसे स्पष्ट किया जा चका है और आवश्यकतानुसार आगे भी स्पष्ट किया जायेगा।
उत्तरपक्षके उक्त कथनकी समीक्षा में दूसरी बात यह कहता हूँ कि यसः उत्तरपक्ष निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धको निमित्तभूत बस्तुकी कार्यके प्रति सहायक न होने रूप अकिचित्करताके आधारपर ही मान्य करता है जब कि वह निमित्त-नैमित्तिक संबंध आगमके अनुसार निमित्तभूत वस्तुकी कायके प्रति सहायक होने रूप कार्यकारिताके आधारपर मान्य किया जा सकता है, जैसा कि प्रश्नोत्तर १ की समीक्षामं स्पष्ट किया जा चका है । अतः उत्तरपक्षका "उपचारनयका आश्रय कर जीवित शरीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है यह कहा जाता है" यह कथन निमित्तकारणभूत वस्तुकी कार्य के प्रति सहायक न होने रूप अकिंचित्करता का प्रतिपादक होने के कारण असंगत सिद्ध होता है । कार्यके प्रति निमित्त कारणभूत वस्तुकी सहायक होने रूप कार्यकारिताका समर्थन और उसकी कार्यके प्रति सहायक न होने रूप अकिंचित्करताका खण्डन प्रश्नोत्तर १ की समीक्षाभं स्थान-स्थानपर विस्तारके साथ किया जा चुका है। वहीं मैं यह भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि निमित्तभूत वस्तु और कार्यमें स्वीकृत कर्तृ-कर्म संबंधके विषयमें उपचारकी प्रवृत्ति आलापपद्धतिके "मुख्याभावे सति निमित्त प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते" इस वचनके अनुसार पूर्वपक्षको मान्य कार्य के प्रति निमित्तकारणभूत वस्तुमें मुख्य कर्तुत्वका अभाव और सहायक होने रूप कार्यकारिताका सद्भाव रहनेपर ही होती है, उत्तरपक्षको मान्य कार्यके प्रति उस निमित्तकारणभूत वस्तुम मुख्य कर्तृत्वका अभाव और सहायक न होने रूप अकिंचित्करताका सद्भाव रहनेपर नहीं होती है । इससे निर्णीत होता है कि दो वस्तुओंमें विद्यमान निमित्त-मैमित्तिक संबंध तो वास्तविक ही है केवल उसके आधारपर न दो वस्तुओं में स्वीकृत कर्त-कर्म संबंध ही उपचरित होता है फिर भी उसे आकाशकुसुमकी तरह कथनमात्र या कल्पनारोपित मात्र कदापि नहीं माना जा सकता है । इतना अवश्य है कि दो वस्तुओंमें विद्यमान निमित्त-नमित्तक संबंधके आधारपर सिद्ध क-कर्म संबंध तो उपचरित होनसे व्यवहारनय द्वारा गृहीत होता है और दो वस्तुओंमें विद्यमान निमित्तनैमित्तिक संबंध पराश्रिततात. आधारपर या एक ही वस्तुके दो धर्मों में विद्यमान निमित्तमित्तिक सम्बन्ध भेदाश्रितताके आधारपर व्यवहारमय द्वारा गृहीत होता है।