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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसको समीक्षा
३. प्रश्नोत्तर २ के द्वितीय दौरकी समीक्षा द्वितीय दौरमें पूर्वपक्षकी स्थिति
पूर्वपक्षने अपने द्वितीय दौरमें उसरपक्षके प्रथम दौर की आलोचनाके प्रसंगमें तक प० १५० पर अनुच्छेद एकमें सर्वप्रथम 'जीवित शरीरको सर्वथा अजीव तत्व मान लेनेपर जीवित तथा मृतक शरीरमें कुछ अन्तर नहीं रहता । जीवित शरीर इष्ट स्थानपर जाता है, मृतक शरीर इष्ट स्थानपर नहीं जा-आ सकता' यह कथन करते हुए उत्तरपक्षके जीवित शरीरकी क्रिया पुद्गल प्रन्यकी पर्याय होने के कारण उसका अजीव तत्वमें अन्तर्भाव होता है। इस कथनको आगम, अनुभव और प्रत्यक्षके विरुद्ध बतलाया है तथा अपने इस कथनके आगे उसने (पूर्वपक्षने) इसी अनुच्छेद एकमें 'दांतोंसे काटना, मारना, पोटना, तलवार बन्दुक लाठी चलाकर दूसरोंका बात करना, पूजा-प्रक्षाल करना, सत्पात्रोंको दान देना, लिखना, केशलोंच करना, देखना, सुनना, सूंघना, बोलना, प्रश्न उत्तर करना. शराब पीना, मांस खाना आदि क्रियायें यदि अजीव तत्वको ही है तो इन क्रियाओं द्वारा आत्माको सम्मान, अपमान, दण्ड, जेल आदि क्यों भोगना पड़ता है तथा स्वर्गनरक आदि क्यों जाना पड़ता है ?' यह कथन किया है। इस कथनके भी आगे उराने वहींपर अनुच्छेद दो में 'अणुव्रत, महावत, बहिरंग तप, समिति लादि जीवित पारीरसे ही होते हैं, भगवान ऋषभदेवने एक हजार वर्ष तक तपस्या शरीरसे ही की थी, अर्हन्त भगवानका विहार तथा दिव्य-ध्वनि आदि शरीर द्वारा ही होती है।' यह कथन भी किया है । इसी तरह इसके भी आगे उसने यही अनुच्छेद ३ में 'कायबाङ्मनः कर्म योगः' (६-१ त० सू०) इस सूत्रके अनुसार कर्मानाबमें शरीर तथा तत्सम्बन्धी वचन एवं दामन कारण है। अजीवाधिकरण आनवका कारण है। यह भी जीवित शरीरके अनुसार है। जीवित शरीरसे ही उपदेश दिया जाता है, प्रवचन किया जाता है, शास्त्र लिखा जाता है, प्रवचन सुना जाता है । वह कथन किया है। पूर्वपक्षके इन सब कथनोंके आधारपर यह सिद्ध होता है कि प्रश्नमें पठित जीवित शरीरकी क्रियासे उसका अभिप्राय यागरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाका ही है, जीवके सहयोगसे होनेवालो शरीरको क्रियाका नहीं । इसी तरह उसने (पूर्वपक्षने) वहीं अनुच्छेद ४ में पं० बनारसीदासजीके नाटक समयसार, समयसारकलया और परमात्मप्रकाशके उत्तरपक्ष द्वारा अपने पक्षके समर्थनके लिए प्रथम दौरम उधृत पद्योंके आशयको स्पष्ट किया है तथा त नु० (६-२०) के आधारस शरीरके राहयोगसे होनेवाली जीवकी असत् क्रियाओंसे उसके (जीवके) संसार परिक्रमणकी पृष्टि को है और अन्तमें पंचास्तिकाच गाथा १७१ की टीका तथा रणयसार गाथा ११ के आधारपर अपनी 'जीवित शारीरकी क्रियासे आत्मामें धर्म-अधर्म होता है। इस मान्यताको पुष्टि की है।
द्वितीय दौरमें उत्तरपक्षके विविध कथन और उनकी समीक्षा
(१) उत्तरपक्षने अपने द्वितीय दीरमे पूर्वपक्षके द्वितीय दौरकी आलोचनाके प्रसंगमें त• च० पृ० ७८ पर यह कथन किया है कि-'यह तो सुविदित रात्य है कि आत्माम निश्चयरत्नत्रयको यथार्थ धर्म कहकर उसके साथ जो देवादिको श्रद्धा, संयमासंयम और संयम सम्बन्धी प्रतादिमें प्रवृत्तिरूप परिणाम होता है उसे व्यवहारधर्म कहा है ।'
इसकी समीक्षामें मेरा कहना है कि उत्तरपक्षने अपने इस कथनमे निश्चवरत्नत्रयको जो यथार्थ धर्म कहा है वह तो ठीक है, परन्तु इस कथन में इतना विशेष ज्ञातव्य है कि यथायोग्य वोका उदय होनेपर आत्माकी