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शंका-समाधान २ को समीक्षा
भाववती शक्तिका जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप विभाव परिणमन होता है उसे तो आत्मपरिणतिके रूपमें निश्चयरूप अधर्म जानना चाहिए तथा उन्हीं कर्मोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर आस्माको भाववती शक्तिका जो सम्यग्दर्शन, राम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारिषरूप स्वभाव परिणमन होता है उसे आत्मपरिणप्तिके रूपमें निश्चय धर्म जानना चाहिए । इसी तरह उसने (उत्तरपक्षने) देवादिको श्रद्धा संयमासंयम और संयम संबंधी व्रतादिमें प्रवृत्ति रूप परिणामीको जो व्यवहारधर्म कहा है वह भी ठीक है, परन्तु इस कथनमें भी इतना विशेष ज्ञातव्य है कि हृदयके सहारेपर होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप देवादिकी श्रद्धाके साथ संयमासंयम और संयम सम्बन्धी प्रतादिमें प्रवृत्तिरूप जो परिणमन होता है वह तो आत्माको क्रियाक्ती शक्ति का ही परिणमन है और दूसरे वह आत्माकी क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप आसक्तिषश और अशक्तिवश होनेवाली प्रवत्तियोंसे यथायोग्य नितिपूर्वक हो तो ही उसे व्यवहार धर्म कहा जा सकता है। कंबल देवादिकी श्रद्धाने साथ संयमासंयम और संमम सम्बन्धी प्रसादिम प्रवृत्तिका नाम व्यवहारधर्म नहीं है। उसे तो मात्र पथ्यकर्म ही कहना चाहिए। इस विषय का सर्वांगीण विवेचन इसी प्रश्नोत्तरको सामान्य समीक्षाके प्रकरणमें विस्तारसे किया जा चुका है।
(२) आगे अपने द्वितीय दौरमें तप० पृ० ७८ पर ही उत्तरपशने यह कथन किया है--'और सम्यग्दृष्टिके शरीर में एकस्वबुद्धि नहीं रहती। यदि कोई जीय शरीर में एकत्यबुद्धि कर शरीरको क्रियाको आत्माको क्रिया मानता है तो उसे अप्रतिबद्ध कहा है।' तथा इसी कधनकी पुष्टि के लिए उसने त च० पु. ७८-७९ पर आगे समयसार गाथा १९ प्रवचनसार गाथा १६० और उसको टोका व प्रवचनसार गाथा १६१ को उद्धृस किया है तथा प्रवचनसार गाथा १६२ और नियमसारका उल्लेख करत हुए सोलापुरसे मुद्रित नयचक्रके पू० ४५ पर निर्दिष्ट 'शरीरमपि यो प्राणी प्राणिनो वदति स्फुटम् ।' इत्यादि पदको भी उद्धृत
किया है।
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इसकी समीक्षा में मैं यह कहना चाहता है कि उत्तरपक्षका यह सब कथन एक तो निर्विवाद होनेसे दुसर, प्रकृत विषयके लिए निरापयोगी होने से प्रकुत विषयसे बाहर है, क्योंकि प्रकृतमे विचारणीय विषय यहा है कि जीवित शरीरको क्रियाको पदगलकी क्रिया माना जा या उरो जीवको क्रियाके रूप में भी मान्य किया जाये? एवं उसके आधारपर आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्तिको स्वीकृत किया जाये या नही? अतः उपयुक्त तो यही होता कि उत्तरपक्ष इसी विषयपर अपने विचार प्रकट करता।
___इस सम्बन्धमें मैं अपने विचार इस रूपमें व्यक्त कर चुका हूँ कि जीवित शरीरकी क्रिया दो प्रकार की होती है-एक तो जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरको क्रिया और दूसरी शरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रिया । इनमेंसे जीवके सहयोगसे होनेवाली शरीरकी क्रियाको पदगलकी क्रिया मानना भो निर्विवाद है और उससे आत्माम धर्म-अधर्म नहीं होता है यह मानना भी निर्विवाद है। इस तरह विवादका विषय यह रह जाता है कि उत्तरपक्ष शरीरके सहयोगसे होनेवालो जीबकी क्रियाको भी पुदगलकी क्रिया मानता है और उससे आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति भी नहीं मानता है जबकि पूर्वपक्ष गरीरके सहयोगसे होनेवाली जीवकी क्रियाको पुदगलकी क्रिया न मानकर जीवकी ही क्रिया मानता है और उससे आत्मामें धर्म-अधर्मकी उत्पत्ति भी मानता है। इनमेंसे पूर्वपशकी मान्यता सम्यक् है उत्तरपक्षको मान्यता सम्यक नहीं है। इस बातको प्रकृत प्रश्नोत्तर के सामान्य समीक्षा प्रकरणमें स्पष्ट किया जा चुका है।
उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्यमें आगम-वचनोंके आधारपर यह स्वीकार किया है कि यदि कोई