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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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उत्तरपक्षनेत० ० पृ० ७ पर जो पूर्वपक्ष के उपर्युक्त कथनको संगत सिद्ध न होनेकी बात कही है उसकी संगतिको पूर्वपक्ष ने त० च० पृ० १५ पर निम्न प्रकार स्पष्ट किया है
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(अ) "सर्व कार्योका सर्वथा कोई नियतकाल हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि प्रवचनसार में at आचार्य अमृत ने कालनय और अकालनय, नियंतिनय और अनिवर्तिनय इन दोनों नयोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बललाई है। और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है और किसी में कोई क्रम नियत भी नहीं है, अतः आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता।
(आ) " कर्म स्थितिबन्धके समय निषेक रचना होकर यह नियत हो जाता है कि अमुक कर्मवर्गणा अमुक समय उदय में आवेगी, किन्तु बन्धावलिके पश्चात् उत्कर्षण, अपकर्षण, स्थितिकाण्डकघात, उदीरणा, afaraft, आदिके द्वारा कर्मवणा आगे-पीछे भी उदयमें आती है, जिसे कर्मशास्त्रके विशेषज्ञ भलीभांति जानते हैं । किन्तु यह नियत है कि कोई भी कर्म स्वमुख या परमुखसे अपना फल दिये बिना अकर्मभावको प्राप्त नहीं होता" । - जयववला पुस्तक ३ ० २४५ ।
अपने कथनको सर्वथा संगत सिद्ध करनेके लिये पूर्वपक्षने उपर्युक्त अनुच्छेद (अ) में स्पष्टतया प्रतिपादन किया है कि 'सर्व कार्योंका सर्वथा कोई नियतकाल हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है । इसके समर्थन में तीन पुष्ट हेतु दिये हैं- ( १ ) प्रवचनसारमें श्री अमृतचंद्र आचार्यने कालनय और अकालनय तथा नियतिनय और अनिवर्तिनम इन दोनों प्रकारके नयोंकी अपेक्षा कार्यकी सिद्धि बतलाई है । (२) 'और ऐसा प्रत्यक्ष भी देखा जाता है' (३) और 'किसीने कोई क्रम नियत भी नहीं किया है'। 'अतः कार्य आगे-पीछे न करनेका प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसा कहना सुसंगत है, असंगत नहीं ।
इसका स्पष्ट आशय यह है कि प्रवचनसार में आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा समय-असमय पर तथा नियतअनियत रूपमें कार्यकी सिद्धि बतलाना व समय-असमयपर तथा नियत अनियत रूपमें उसकी उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखा जाना और किसीके द्वारा किसी द्रव्यमे कार्यकी उत्पत्तिका कोई क्रम नियत न करना ये तीनों हेतु ऐसे हैं जिनके आधारपर सर्वकार्योंका सर्वथा कोई नियतकाल सिद्ध नहीं होता । ऐसी वस्तुस्थितिमें किसी भी द्वय में कार्यके आगे-पीछे न होनेका प्रश्न नहीं उठता और न उसे असंगत ही कहा जा सकता है और जब aran कार्यों की उत्पत्तिका मागे-पीछे कभी भी होना सिद्ध होता है तो उत्तरपक्षका त० च० पृ० ७ पर निर्दिष्ट उपर्युक्त कथन ही असंगत सिद्ध होता है ।
यतः उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के ० च० पृ० १५ पर निर्दिष्ट अनुच्छेद ( अ ) के उपर्युक्त कथनको ठीक तरहसे समझ नहीं सका है, अतः उसने पूर्वपक्ष के उक्त कथनको त० प० पृ० ४५ पर दो भागों में विभक्त करके उन भागोंका १० ४५ से पृ० ४८ तक खण्डन करनेका प्रयत्न किया है। यहाँ उन दोनों भागों को उद्धृत कर उनकी समीक्षा की जाती है---
(१) प्रथम भागपर उत्तरपक्षनेत० ० ० ४५-४६ तक लिखा है कि "प्रथम तो प्रवचनसार में निर्दिष्ट कालन अकालनय तथा नियतिनय-अनियतनयके आधारसे विचार करते हैं। वहीं प्रथमतः यह समझने योग्य बात है कि वे दोनों सप्रतिपक्ष नययुगल हैं, अतः अस्तिनम नास्तिनय इस सप्रतिपक्ष नययुगलके समान ये दोनों नययुगल भी एक हो कालमें एक ही अर्थमें विवक्षाभेदसे लागू पड़ते हैं, अन्यथा ये नय नहीं माने जा सकतें 1 अपरपक्ष इन नययुगलों को नयरूपसे तो स्वीकार करता है, परन्तु कालभेद आदिकी अपेक्षा
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