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जयपुर (खानिया) सत्त्वचा और उसकी समीक्षा
तो हो कार्य निष्पन्न होगा और यदि उपादानको बाह्य सामग्रीका समागम प्राप्त नहीं हो तो कार्य निष्पान नहीं होगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्तरपक्ष की मान्यताके अनुसार कार्योत्पत्तिमें बाह्य सामग्री अकिंचिकर सिद्ध होती है व पूर्वपक्षको मान्यता के अनुसार उसकी कार्योत्पत्ति में सहायक होने रूपरो कार्यकारिता सिद्ध होती है। दोनों पक्षोंके मध्य केवल इतना ही मतभेद है। मैंने इस समीक्षा-मेघमें इस बातको सिद्ध किया है कि पूर्वपक्षकी मान्यता ही अनुभव, इन्द्रियप्रत्यक्ष, युक्ति और आगमसे संगत सिद्ध होती है, उत्तरपक्षकी नहीं । अब तत्त्व-जिज्ञासुओंका कर्तव्य है कि वे स्वयं विचार कर इसका निर्णय करें।
उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्यमें अन्य जो कुछ लिखा है, उसके विषयमें पूर्णपक्षकी दष्टिका स्पष्टीकरण मेरे उपर्युक्त विवेचन, इसी प्रश्नोत्तरके अन्य समीक्षात्मक विवेचन और प्रश्नोत्तर १ के समीक्षात्मक विवेचनसे हो जाता है।
आगे त० च० "०८८ पर ही उत्सरपक्षने अपने उपयुक्त वक्तव्यके समर्थन में तत्वार्थश्लोकवातिकके वचनको भी उपस्थित किया है। उसके विषयमें भी. पूर्वपक्षके दष्टिकोणका स्पष्टीकरण मेरे उपर्युक्त विवेचनसे, इसी प्रश्नोत्तरके अन्य समीक्षात्मक विवंचनसे और प्रश्नोत्तर १के समीक्षात्मक विवंचनसे हो जाता है। इसी तरह उत्तरपक्षने वहीं पर जो प्रमाणदृष्टि, निश्चयनमदृष्टि, व्यवहारतयदृष्टि, सद्भूतव्यवहारनयष्टि और असद्भुतन्यवहारनप्रदष्टि -इनका विवेचन किया है, उनके विषयमें पूर्वपक्षके दृष्टिकोणका साष्टीकरण उपर्युक्त आधारोंपर ही हो जाता है । तात्पर्य यह है कि उत्तर पक्षक 'यह प्रमाणदष्टि और निश्चयनयष्टिका निर्देशक वचन है । इमसे हमें यह सुस्पष्टरूपसे ज्ञात हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि एक-एकको मोक्षका कारण कहमा यह सद्भुत होकर भी जबकि व्यवहारनयका सूचक वचन है ऐसी अवस्थामें विशिष्ट काल या शरीरकी क्रियाको उसका हेतु कहना यह तो असद्भुत व्यवहार चचन ही ठहरेगा। इसे यथार्थ कहना तो दो द्रव्योंको मिलाकर एक कहनेके बराबर है।' इस कथन के विषय में भी पूर्वपक्षका स्पष्टीकरण यही है कि प्रमाणका विषय, निश्चयनयका विषय, यवहारनयका विषय, सद्भुत व्यवहारनाका विषय और असद्भुत व्यवहार नयका विषय---ये सभी अपने-अपने ढंगसे वास्तविक ही हैं, कोई भी कल्पनारोपित या कथन मात्र नहीं है । क्या उत्तरपक्ष कह सकता है कि नाना अणुरूप वास्तविक पुद्गल व्योंके परस्पर बन्धसे जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूा अवास्तविक (उपचरित) गार्थीका निर्माण होता है वे सब पदार्थ कल्पनारोपित या कथन मात्र ही हैं । यदि ऐसा माना जाम तो इन पदार्थो का जो लोकमें जपयोग देखने में आता है, उसे भी काल्पनिक
और कथन मात्र मानना होगा जो उत्तरपक्षको भी अभीष्ट नहीं होगा, क्योंकि ऐसा माननेसे उसके समस्त जीवन-व्यवहार ही समाप्त हो जावगे । इसलिये यही मानना श्रेयस्कर है कि दो द्रव्य मिलकर एक अर्थात् तादात्म्य-सम्बन्धाश्रित वास्तविक द्रव्य न होते हुए भी संयोग सम्बन्धाषित रूपसे तो वे वास्तविक है हो । जैनदर्शनके अनेकान्तवादका यही चमत्कार है। कथन ८ और उसकी समीक्षा
उत्तरपक्षने त च १०८८ पर ही आगे यह लिखा है-'अपरपक्षका कहना है कि मात्र बाह्य या आभ्यन्तरको ही कारण माननेपर पुरुषके मोक्षकी सिद्धि नहीं हो सकती।' आदि-इराके आगे इसके समापानके रूपमें उसने लिखा है