________________
२
जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा
यदि क्रोत्र आदि विकारी भावको कर्मोदय बिना मान लिया जाये तो उपयोगके समान वे भी जीवके स्वभाव-भाव हो जायेंगे और ऐसा मानने पर इन विकारीभावका नाश न होनेसे मोक्षके अभावका प्रसंग आ जावेगा 1त० च० पृ० १० ।
उत्तरपक्ष ३- इस प्रश्नका समाधान करते हुए प्रथम उत्तर में ही हम यह बतला आये हैं कि संसारी आत्माके विकारभra और चतुर्गतिपरिभ्रमण में द्रव्यकर्मका उदय निमित्तमात्र है। विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमणका मुख्यकर्त्ता तो स्वयं आत्मा ही है। इस तथ्पकी पुष्टि में हमने समयसार पंचास्तिकायटीका, प्रवचनसार और उसकी टीका अनेक प्रमाण दिये हैं। किन्तु अपर पक्ष इस उत्तरको अपने प्रश्नका समाधान मानने के लिये तैयार नहीं प्रतीत होता । एक ओर तो वह द्रव्यकर्मके उदयको निमित्त रूपसे स्वीकार करता है और दूसरी ओर पकर्मोदय और संसारी आत्मा के विकारभाव तथा चतुर्गतिपरिभ्रमणमें व्यवहारनमसे बतलाये गये निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको अपने मूलप्रकनका उत्तर नहीं मानता, इसका हमें आश्चर्य है । हमारे प्रथम उत्तरको लक्ष्यकर अपर पक्षकी मोरसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ के उत्तर में भी हमारी ओरसे अपने प्रथम उत्तरमें निहित अभिप्रायकी ही पुष्टि की गई है ।
तत्काल हमारे सामने द्वितीय उत्तरके आधार से लिखी गई प्रतिशंका ३ विचारके लिए उपस्थित है । इस द्वारा सर्वप्रथम यह शिकायत की गई है कि हमारी ओरसे अपर पक्षके मूलप्रश्नका उत्तर न तो प्रथम वक्तव्य में ही दिया गया है और न हो इस दूसरे वक्तव्यमें दिया गया है । "संसारी जीवके विकारभाव और चतुर्गतिपरिभ्रमण में कर्मोदय व्यवहारनयसे निमित्त मात्र है, मुख्यकर्ता नहीं" इस उत्तरको अपर पा संगिक मानता है । अब देखना यह है कि वस्तुस्वरूपको स्पष्ट करने की दृष्टिसे जो उत्तर हमारी ओरसे दिया गया है अप्रासंगिक है या अपर पक्षका यह कथन अप्रासंगिक ही नहीं, सिद्धान्तविरुद्ध है, जिसमें उसकी ओरसे विकारका कारण बाह्य सामग्री है, इसे यथार्थ कथन माना गया है ।
अपर पक्षने पद्मनन्दिवशितिका २३ ७ का "द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्" इस वचनको उद्धृतकर जो विकारको दो का कार्य बतलाया है सो यहाँ देखना यह है कि जो विकाररूप कार्य होता है वह किसी एक द्रव्यकी विभावपरिणति है या दो द्रव्योंकी मिलकर एक विभावपरिणति है ? वह दो द्रव्योंको मिलकर एक विभावपरिणति है यह तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि दो अन्य मिलकर एक कार्यको त्रिकालमें नहीं कर सकते । इसी बातको समयसार आत्मख्यातिटीकामें स्पष्ट करते हुए बतलाया है ।
नोभी परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा ॥ ५३ ॥
- १० च० पृ० ३२
इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन
इन उद्धरणोंको यहाँ प्रस्तुत करनेका प्रयोजन यह है कि तत्वजिज्ञासुओंको यह समझ आ जाए कि पूर्व पक्षने अपने प्रश्नमें जो पूछा है उसका समाधान उत्तरपक्ष के उत्तरसे नहीं होता। आगे इसी बातको स्पष्ट किया जा रहा है
पूर्व पक्षके उद्धरणोंसे यह स्पष्ट होता है कि वह उत्तरपक्षसे यह पूछ रहा है कि द्रव्यकर्मका उदय संसारी भारमा विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमे निमित्त होता है या नहीं। स्वयं उत्तरपक्षने भी अपने