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पांका-समाधान १ की समीक्षा को भी उसने यथारूपमें ग्रहण करने का प्रयास नहीं किया है । फलतः उसने अपने तृतीय दौरमें पृ० ३६-३८ तक पूर्वपक्ष द्वारा पृ० ११ से १४ तक प्रस्तुत आगमप्रमाणोंका विपरीत आशय ग्रहण करके पूर्वपक्षके कथन का विरोध करनेमें ही अपनी शक्ति लगाई है।
पूर्वपदक प्रश्नका उत्तःो अपना ध्यान केवल विवादग्रस्त विषयपर ही केन्द्रित रखना चाहिए था। परन्तु उसने अपने उत्तरमें जो कथन किया है वह व्यर्थ और सीमाका अतिक्रमण करके किया है । हम आगे यही स्पष्ट करेंगे । कथन १२ और उसकी समीक्षा
पूर्वपक्षने अपनी मान्यताके समर्थन में तृतीय दौरमें पु०११ पर समयसार गाथा १९८ और १९९ को प्रमाणरूपमें प्रस्तुत किया है । उसके सम्बन्ध में उत्तरपक्षने अपने तृतीय दौरों पृ० ३६ पर निम्न लिखित कथन किया है
"समयसार गाघा १९८ में भी इसी तथ्यको सूचित किया गया है । जितने अंशमें जीव पुरुषार्थहीन होकर कर्मोदयरूप त्रिपाकसे युक्त होता है उतने अंशमें जीवमें विभाव भाव है हुए है इसलिए इन्हें परमाव भी कहते हैं और ये आत्माके विभावरूप भार होनेसे स्वभावरूप भावोंसे बहिभूत हैं, इसलिए हेय है । यदि इनमें इस जीनको हेयबुद्धि हो जाये तो परके सम्पर्कमें भी हेयबुद्धि हो जाये यह तथ्य इस गाथा द्वारा सूचित किया गया है । स्पष्ट है कि यहाँ भी आत्माकी स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है । कर्मोदय बलपूर्वक इसे विभावरूप परिणमाता है यह इसका आशय नहीं है। किन्तु जब यह जीव स्वयं स्वतन्त्रता पूर्वक कर्मोदयसे युक्त होता है तब नियमसे विभावरूप परिणमता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । समयसार गाथा १९९ का भी यही आपाय है ।" इस कथनकी समीक्षा निम्न प्रकार है।
समयसार गाथा १९८ और १९९ का राकेत करने में पूर्वपक्षका यह उद्देश्य था कि उत्तरपक्षको यह ज्ञात हो जाये किजीवके विकारी भावोंकी उत्पत्तिमें द्रव्यकर्मोदय प्रेरकरूपसे निमित्त कारण होता है। अति जितने भी जीवमे विभान भाष होते हैं वे सब यद्यपि जीवकी परिणतिके रूपमें ही होते हैं व जीवमें विद्यमान तदनुकूल स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप ही होते हैं, परन्तु वे जीवमें तभी होते हैं जब उसे तदनुकूल कर्मोदय का प्रेरकरूपसे सहयोग प्राप्त होता है।
उत्तरपक्षने पूर्यपक्षाके इस कथनकी उपेक्षा करते हए इसके विपरीत उपर्युक्त वक्तव्यमें कथन किया है कि "जब यह जीन स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक कर्मोदयसे युक्त होता है तब वह नियमसे विभावरूप परिणमता है।" इसकी पुष्टिम उसका वहींपर यह कहना है कि 'कर्मोदय बलपूर्वक इसे विभावरूप नहीं परिणमाताहै।" ऐसा कथन करने में उत्तरपक्षका उद्देश्य यही है कि वह कर्मोदयको उस कार्यमें सर्वथा अकिंचिकर सिद्ध करना चाहता है। परन्तु पूर्वमें अनुमन, युक्ति और आगम प्रमाणोंके आधारपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि उस कार्य में द्रव्यकर्मोदय अकिचिकर नहीं है, प्रत्युत प्रेरकरूपसे कार्यकारी है, जिसका आशय यह है कि विकाररूप कार्य उसके उपादानकारणभूत संसारी आत्मामें उसकी निजी स्वाभाविक योग्यता होनेपर भी प्ररक निमित्तके बलसे आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है। इस प्रकार प्रेरक निमित्त उपादानकारणभूत वस्तुको बलात् परिणमानेकी क्षमता तो रखता है, परन्तु उसकी यह क्षमता इस प्रकारकी है कि वह उस क्षमताके आधारपर उगादानकारणभूत धस्तु में विशेषता उत्पन्न कर सकता है। वह किसी भी वस्तुको जिस
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