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जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा और उसकी समीक्षा अनिवृत्तिकरण परिणामों के आधारपर यथायोग्य उक्त मोह (मिथ्यात्व) कर्मके उदयका अनादिमिथ्यावर्शनकी अपेक्षा उस कर्मका उपशमके रूपमें और सादिमिश्यादर्शनकी अपेक्षा उस कर्मका लपणम, क्षय या क्षयोपशमके रूप में अभाव करके उक्त भाम-भावकसंकरदोषका परिहार कर भावसम्यग्दृष्टि हो जाता है।
इस प्रकार इस विवेचनसे यह बात निषित हो जाती है कि उक्त एकत्यबुद्धिका त्याग हो जानेपर भी जब तक जीवमें मिथ्यात्वक्रर्मके उदयका उस कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके रूपमें अभाव नहीं हो जाता तब तक उस जीवके भाव्य-भावक संकरदोषका परिहार नहीं होता है। ऐसी हालत में उत्तरपक्षका यह कथन कि "जब तक यह जीव मोहोदय के सम्पर्क में एकत्वद्धि करता रहता है तभी तक मोहोदयमें भावक व्यवहार होता है और आत्मा भाव्य कहा जाता है। यदि ऐसा न माना जाये तो सवत मोहोदयके विद्यमान रहने के कारण यह आत्मा भेद-विज्ञानके बलसे कभी भी भाब्य-भावक संकरदोषका परिहार नहीं कर सकता है" महत्त्वहीन और असंगत है । इसी प्रकार उत्सरपक्षका यह कथन भी उक्त हालत में महत्त्वहीन और असंगत है कि “इस प्रकार इस कथन द्वारा आत्माको स्वतन्त्रताको अक्षुण्ण बनाये रखा गया है। आत्मा स्वयं स्वतन्त्र पने मोहोवयसे अनुरंजित हो तो ही मोहोदय रंजक है अभ्यथा नहीं' इस कथनके महत्त्वहीन और असंगत होनेका कारण यह है कि आत्माकी स्वतन्त्रता केवल इस बातमें है कि मोहरूप परिणति उसकी अपनी ही परिणति है और वह उसमें विद्यमान स्वाभाविक योग्यताके अनुरूप होती है । आरमाकी स्वतन्त्रता इस बातमें नहीं है कि उसको वह माहरूप परिणति मोहवामके अथवा मोहकर्मके उदयके सम्पर्क ( सहयोग) के बिना अपने आप ही होती है। अतः पूर्वपक्षके अनुसार ऐसा मानना ही आगम और युक्तिरों संगत है कि संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुर्गतिभ्रमणमें द्रव्यकर्मका उदय सहायफ होनेरूपसे कार्यकारी निमित्तकारण है । उत्तरपक्षके अनुसार ऐसा मानना आगम और युक्तिसे संगत नहीं है कि संसारी आत्माका वह विकारभाव और धतुर्गतिभ्रमण स्वयं स्वतन्त्रपने अर्थात् द्रश्यकर्मोदयकी सहायताके बिना अपने आप ही होता है व द्रव्यकर्मका उदय उसमें सहायक न होने रूपसे सतत अकिंचिकर ही बना रहता है। एकत्वबुद्धिका अभाव भावमिथ्यादृष्टि जोवके भी उक्त प्रकारसे सम्भव है, जिसका ऊपर पर्याप्त स्पष्टीकरण किया गया है।
वास्तविक बात यह है कि उत्तरपक्षको पहलेसे ही यह भय सता रहा है कि यदि प्रेरक और उदासीन कारणोंको उपादानकारणभूत वस्सुकी कार्यरूप परिणतिमें अपने-अपने ढंगसे सहायक होने रूपमें कार्यकारी माना जाये तो उस कार्योत्पत्ति के प्रति उपादानकारणभूत वस्तुको स्वतन्त्रता नष्ट हो जायेगी। फिन्तु उसका यह भय निरर्थक है, क्योंकि कार्योत्पत्तिमें वस्तुकी स्वतन्त्रता किस रूपमें है या हो सकती है, इस बातको पूर्वपक्षने अपने वक्तव्योंमें बार-बार स्पष्ट किया है और इस समीक्षामें भी स्पष्ट किया गया है । यदि उत्तरपक्ष इसपर ध्यान नहीं देता तो इसका क्या उपचार है ? क्योंकि यह उसकी आत्माकी स्वतन्त्रता है ? लेफिन वह कार्योत्पत्तिमें इस तरह यदि निमित्तौंको अकिंचित्कर सिद्ध करनेकी चेष्टा करे तो तत्व फलित नहीं होमा । आगामी समीक्षाकी भूमिका
पूर्वपक्षने अपने तृतीय दौरमै पृ० ११ से पृ० १४ तक अनेक आगमप्रमाणोंको प्रस्तुत कर उनके द्वारा द्रव्यकर्मके उदयको संसारी आत्माके विकारभाव और चतुर्गतिभ्रमणमें प्रेरकरूपसे सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी निमितकारण सिद्ध किया है । परन्तु उत्तरपक्ष ने या तो आगमके आशयको यथारूपमें समझनेकी चेष्टा नहीं की है या जानबूझकर उसने उसका विपरीत आशय प्रगद किया है और पूर्वपक्ष के कथनके आशय