________________
तृतीय दौर
शंका ३ प्रश्न था किजीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या?
प्रतिशंका ३ इस प्रश्न के उत्तरमें आपने पहले पत्रक जीवदयाको धर्म न मानने के लिए तीन बातें लिखी थी1. पुण्याप है, किन गरि तोकिन्तु धर्म रूप नहीं है।
२. परमात्मप्रकाशाफी ७१वीं गाथाका प्रमाण दिया जिसमें शुभपरिणामको धर्म बतलाया है । परन्तु टीकाकारके 'शुभपरिणामेन धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या' अर्थात् 'शुभपरिणामसे धर्म होता है जो कि मुख्यवृतिसे पुण्यरूप है । इस वाक्यके आधारसे आपने शुभ परिणामको धर्मरूप होनेको उपेक्षा कर पुण्यरूप निश्चित कर दिया। ऐसा करते हुए ग्रन्थकार तथा टीकाकार द्वारा शुभ परिणामोंको धर्मरूप बतलाये
आनेपर भी आपने उसे पुण्यका आधार लेकर, जीवदयाको आसव-चच्य तत्त्वमें बलान् स्वेच्छासे अधर्ममें डाल दिया। तयाच जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व भी बतला दिया ।
३. समयसारकी २६४वीं गाथाका उद्धरण देकर जीवदयाको अध्यवसान (कषायप्रभावित गलत अभिप्राय-अभिमान आदिके कारण यों मान लेना कि मैंने उसे मरनेसे बचा लिया आदि) रूप बतलाया, तदनुसार जीवदयाको धर्म न मानकर माष पुण्यमन्धरूप अप्सलाया ।
आपके इस उत्तरके निराकरणमें हमने आपको दूसरा पत्रक दिया जिसमें श्री आचार्य कुन्दकुन्द, वीरसेन, अकलंक, देवसेन, स्वामी कार्तिकेय आदि ऋषियोंके प्रणीत प्रामाणिक-आर्षग्नन्थों-धवल, जयधवल, राजवार्विक, बोधपाहरू, भावपाहुड, भावसंग्रह, स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा आदिके लगभग २० प्रमाण देकर दो बातें सिद्ध की थी
१. जीवक्ष्या करना धर्म है। २. पुण्यभाव धर्मरूप है । पुण्यभाव या शुभभावोंसे संघर निर्जरा तथा पुण्य कर्मबन्ध होता है ।
भार्षग्रन्थोंके श्रद्धालु बन्धु इन ऋषियों तथा उनके ग्रन्थोंकी प्रामाणिकतापर अप्रामाणिकताको अँगुली नहीं उठा सकते, क्योंकि हमको संसान्तिक एवं धार्मिक पथप्रदर्शन इन ऋषियों तथा इनके आर्षग्रन्थोंसे हो प्राप्त होता है और उसका कारण है कि उनमें निर्विवाद जिनवाणी निबद्ध है। यह तो हो सकता है कि इन आर्षग्रन्धोंकी कोई बात कदाचित् हमारी समझ में न आये, किन्तु यह बात कदापि नहीं हो सकती कि उन अन्योंकी कोई भी बात अप्रामाणिक या अमान्य हो ।
तदनुसार आशा पी कि इन अन्यों के प्रमाण देखकर चरणानुयोग तथा जनश्रमके मूलाधार दयाभावको धर्मरूप स्वीकार कर लिया जाता, परन्तु आशा फलवती नहीं हुई।
आपके दूसरे पत्रकमें उन आर्ष प्रमाणोंकी प्रामाणिकताकी उपेक्षा करते हुए उनकी अवहेलनामें निम्न