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जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसकी समीक्षा
पंक्तियां लिखी गई है— 'ये सय प्रमाण तो लगभग २० ही हैं, यदि पूरे जिनागममें से ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाये तो एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ हो जाय, पर इन प्रमाणोंके आधारपर क्या पुण्यभावरूप दयाको इतने मात्र से मोक्षका कारण माना जा सकता है ?....फिर पुनः अप्रासंगिक उद्धरण देकर लिखा गया है'शुभभाव चाहे वह दया हो, करुणा हो, जिनबिम्बदर्शन हो, व्रतोंका पालन हो, अन्य कुछ भी क्यों न हो, यदि वह शुभ परिणाम है तो उससे मात्र बन्ध हो होता है उससे संवर, निर्जरा और मोक्षकी सिद्धि होना असम्भव है।' इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि उपर्युक्त महान् आचार्योंका यह कथन कि शुभभावसे संवर व निर्जरा भी होती है असंभव होनेके कारण मिथ्या है। आश्चर्य है कि कोई भी जिनवाणीका भक्त इन महान् आचार्यों एवं महान् ग्रन्थोंके स्पष्ट कथनको मिथ्यारूप कहनेका साहस कैसे कर सकता है ?
इसके साथ ही मूल विषयको अछूता रखकर विषयान्तर में प्रवेश किया गया है । उसमें जो समयसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय तथा समयसार कलाके ४-५ प्रमाण उद्धृत किये गये हैं उनमें से एक भी प्रमाण, एक भी वाक्य तथा एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसमें जीवदयाको धर्म माननेपर मिथ्यात्वको संभावना सिद्ध होती है ।
कारण बतलाने
आपने अपने इस पकमें केवल रागभावको की है उस विषय में असहमत नहीं है, अतः उक्त दोनों ग्रन्थोंके उद्धरण हमें स्वीकार हैं। कितना अच्छा होता कि आप भी उन आर्ष ग्रन्थोंको प्रमाण मानकर 'धम्मो दयापहाणो' — धर्म दया प्रधान है 1
धम्मो दयाविसुद्ध पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता | ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ॥२५॥
देवो
—जोषपाहुर
अर्थ -- दया से विशुद्ध धर्म सर्वपरिग्रह रहित दीक्षा - साधु मुद्रा और मोह रहित वीतराग देव ये तीनों भव्य जीवोंके अभ्युदयको करनेवाले हैं ।
करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो ।
अर्थ - करुणा जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्मजनित कहने में विशेष आता है ।
तथा
- घवल पु० १३५० ३६२
सम्मादिट्ठीपुण्णं ण होइ संसारकारणं णियमा । मोक्स होइ हेऊ जड़ वि णियाणं ण सो कुणइ ॥ ४०४ ||
— भावसंग्रह
अर्थ --- सम्यग्दृष्टिका पुण्य संसारका कारण नहीं है, नियमसे मोक्षका कारण है । आदि निर्विवाद वाक्योंको श्रद्धाभाव से ही यदि स्वीकार कर लेते तो जैनधर्म के मूल तत्त्व पर हमारा और आपका मतभेद दूर हो जाता ।
रागभावकी कर्मबन्धी कारणतापर विश्वार करनेसे पहले हम एक महत्त्वपूर्ण आर्य विधानको मोर पुनः आपका ध्यान आकर्षित करने का लोभ संवरण नहीं कर सकते । आशा है आप उस शिरसा मान्य वाक्य पर एकबार पुनः गम्भीरता से विचार करनेका प्रयत्न करेंगे।
सुहसुद्धपरिणामेहिं कम्मक्लया भावे तक्खयाणुत्रवत्तीदो |