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जयपुर ( खामिया ) तत्वपर्धा
पुग्गलकम् रागो तस्स विवागोदभी हषदि एसी ।
पा
'दु पुस मज्झ भावी जाणगभाषी हु अहमिषको ।।१९९ ।।
अर्थ - राग पुद्गल कर्म है। उसका विपाकरूप उदय यह है। यह मेरा भाव नहीं है। मैं तो
निश्चय से एक ज्ञायकभाव है ।। १६६ ॥
वही पुनः कहा है
पूर्वज
अप्पा ं सुणदि जाणगसहावं ।
उदयं कम्मविवागं य मुदित बियाणंती ॥ २००॥
अर्थ -- इस प्रकार सम्पादृष्टि आत्माको ( अपने को ) ज्ञायकस्वभाव जानता है और तत्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको जानता हुआ कर्मके विपाकरूप उदयको छोड़ता है || २०० ॥
चेतना तीन प्रकारकी है— ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना | उनमें से सम्यग्दृष्टि अपने को ज्ञानचेतनाका स्वामी मानता है, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाका नहीं । किन्तु शुभ रागरूप दयाका अन्तर्भाव कर्मचेतना में होता है, इसलिये कर्मके विपाकस्वरूप उसके ऐसी दया अवश्य होती है पर वह इसका स्वामी नहीं होता ।
यदि प्रकृत में दयासे वीतराग परिणाम स्वीकार किया जाता है और इसके फल स्वरूप जिन उल्लेखोंके आश्रय से प्रतिशंका र दयाको कर्मक्षपणा या मोक्षका कारण कहा है तो उसे उस रूप स्वीकार करने में तत्त्वकी कोई हानि नहीं होती, क्योंकि राग परिणाम एक मात्र बन्धका ही कारण है, फिर भले ही वह दसवें गुणस्थानका सूक्ष्मसाम्पराय रूप राग परिणाम ही क्यों न हो और बीतराग भाव एक मात्र कर्मक्षपणा का हो हेतु है, फिर भले ही वह अविरत सम्यग्दृष्टिका वीतराग परिणाम क्यों न हो। इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर श्रो समयसारजीके कलशोंमें कहा भी है
मृत ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्य भावरणान्मोक्ष हेतुस्तदेव तत् ॥ १०६ ।। वृत्त कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । दृष्यान्तरस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुर्न कर्म तद् ॥ १०७ ॥
अर्थ-ज्ञान एक द्रव्यस्वभावी ( जीवस्वभावी ) होनेसे ज्ञानके स्वभावसे सदा ज्ञानका भवन बनता है, इसलिये ज्ञान ही मोक्षका कारण ॥१०६ ॥
कर्म अन्य द्रयस्वभावी ( पुद्गलस्वभावी ) होनेसे कर्म के स्वभावसे ज्ञानका भवन नहीं बनता, इसलिए कर्म मोका कारण नहीं है ||१०७॥