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शंका १ और उसका समाधान होता है, इसलिए आत्मा द्वारा पुदगलका कर्मरूप परिणमन किया गया--ऐसा विकल्प सन लोगोंका होता है जो निर्विकल्प विज्ञानघनसे भृष्ट अर्थात् विकारी परिणति में वर्तमान अतएव विकल्पपरायण हैं। लेकिन 'आत्मा द्वारा पदगलका कर्मरूप किया जाना' यह उपचार ही है अर्थात निमित्तनैमित्तिकभावकी अपेक्षास ही है, परमार्थरूप नहीं है अर्थात् उपादानोपादेयभावकी अपेक्षासे नहीं है ।।१०५।। आचार्य अमृतचन्द्र ने जो यह समवसार कलश रचा है...
यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म ।
या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥५१॥ इसमें 'जो परिणमित होता है अर्थात् जिसमें या जिसका परिणमन होता है वह कर्ता है' कर्ताका यह लक्षण उपादानोपादेयभावको रक्ष्यमें रखकर ही माना गया है। परम्स इस पर ध्यान न देते हुए उस लक्षणको सामान्यरूपम् कर्ताका लक्षण मानकर निमित्तनैमित्तिकभावको अपेक्षा आगममें प्रतिपादित कर्तकर्मभावको उपचरित ( कल्पनारोपित ) मानते हए आपके द्वारा निमित्तकर्ताको अकिंचित्कर ( कार्यके प्रति निरुपयोगी ) करार दिया जाना गलत ही है, क्योंकि निमित्तकर्ताको समयसार गाथा १०० में आचार्य कुन्दकुन्दने तथा इसकी टोकामें आचार्य अमृतनन्द्रने सार्थकरूपमें ही स्वीकार किया है, जो निम्न प्रकार है
जोवो ण करेंदि घडं णेव पड़ गव सेसगे दब्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेसि हवदि कत्ता ॥१००।।
मट, टरषन को नहीं मारता है, किन्तु जीबबे, योग और उपयोग ही उनके का है तथा उनका कर्ता आत्मा है ॥१०॥
टोका-यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कम तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगाद् ध्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषंगात् निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारी, योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मागि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्मककर्मकर्ता स्यात् ।।१०।।
अर्ध- लो घटादि अथवा क्रोधादिरूप परद्रव्यात्मक कर्म है उसको यह आत्मा नामका द्रव्य व्याप्यव्यापकगावसे अर्थात् उगादानोपादेयभायमे तो करता नहीं है, क्योंकि इस तरहसे* उसमें तन्मयत्व ( परदृश्यात्मक घटादि और क्रोधादिरूप कर्ममयत्व ) का प्रसंग उपस्थित होता है तथा वह आत्मा नामका द्रव्य परदन्यात्मक घटादि और क्रोधादिकप कर्मको निमित्तनैमितिकभावरूपसे भी नहीं करता है, क्योंकि निमित्तनैमित्तिकमावरूपसे का मानने पर उसका ( आत्माका शाश्वत होने के कारण परद्रव्यात्मक घटादि और क्रोधादिरूप कर्म करने में नित्यकर्तत्व प्रसस्त हो जायगा; अतः आत्मदव्य स्वयं कर्ता न होकर उसकी अनित्यभूत योग और अयोगरूप पर्याय ही परद्र च्यात्मक घटादि अथवा ब्रोधादिरूप कर्मको निमित्तरूपसे कर्ता होती है। यद्यपि आत्मा स्थफे विकल्प और व्यापाररूप योग तथा उपयोग को कदाचित् अपनी विभाव परिणतिक्के कारण करता है, अतः आत्मा भी का होता है तो भी वह (आत्मा) परद्रव्यात्मक कर्मका कर्ता नहीं होता हैं। अथात् आत्माक अनित्यभूत योग और उपयोग ही परद्रव्यात्मक कर्मक निमित्तरूपसे कर्ता होत हैं ।।१०।।
____ इस प्रकार 'चः परिणमति स कर्ता' कतकि इस लक्षणके आधार पर आपके द्वारा निमित्तकर्तृत्वको उपचारगे (कल्पनारोपितरूपसे) कर्तृत्व बताना असंगत ही है । * पूर्वपक्षके पत्रको लाल स्याहीमे चिलित वाक्यांश निम्न प्रकार है
उसमें ( परद्रव्यात्मक घटादि और क्रोधादिरूप कर्ममें ) तन्मयत्व ( आत्ममयत्व )।