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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
अर्थ सहकारी कारणके साथ कार्यका कार्यकारणभाव कैसे सिद्ध होता है ? क्योंकि सहकारी कारण और कार्यमें एक व्यताका अभाव है, यदि ऐसा कहा जाय तो इसका उत्तर यह है कि सहकारिकारणके साथ कार्यका कार्यकारणभाव कालप्रत्यासत्तिके रूपमें माना गया है, क्योंकि जिसके अनन्तर जो अवश्य होता है यह सहकारी कारण कहा जाता है और दूसरा कार्य कहलाता है ऐगा ही प्रतीत होता है। ऐसा सहकारिस्व कहीं पर भी भावप्रत्यासत्ति अथवा क्षेत्रप्रत्यासत्तिरूप नहीं होता है, क्योंकि इनका नियम बनता नहीं है । देखने में आता है कि निकट देशमें स्थित चक्षुको भी रूपज्ञानको उत्पत्तिमें सहकारिता होती है इसी प्रकार सुवर्णभावसे रहित अर्थात् लोह धातुसे निर्मित संदेशक (संडासी) आदि को भी सुवर्णनिर्मित कटक आदि की उत्पत्ति में सहकारिता होती है। यदि जितने क्षेत्रमें जो जिस कार्य की उत्पत्तिमें सहकारी कारण होता है. इसी प्रकार जो जिस भावरूपसे सहकारी कारण होता है वह उतने में और उस भावरूपमें सहकारी होता है-ऐसी क्षेत्र और भावरूप प्रन्यासत्तिको कार्यमें सहकारित्य कह दिया जाय तो फिर कालप्रत्यासत्तिकी तरह क्षेत्रप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्तिरूप भी सहकारित्वको माना जा सकता है। इसमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार व्यवहारनयका आश्रय लन पर दो पदामि रहला कार्यकारणभाव सबन्ध भी संयोग और समवाय आदिके समान प्रतीतिसिद्ध होने के सब पारमार्थिक ही है, कल्पना द्वारा आगेषित नहीं है; कारण कि यह सर्वथा निर्दोष है ।
इसी प्रकार अष्टशतीमें श्रीमद् भट्टाकलंकदेवने भी सहकारी कारणको कार्यके प्रति उपादान के लिए सहयोगदाताके रूपमें प्रतिपादित किया है । वह वचन निम्न प्रकार हैतदसामध्यमखण्डयदकिञ्चित्करं किं सहकारिकारणं स्यात् ?
-अष्टसहस्री पृष्ठ १०५ अर्थ-उसको अर्थात् उपादानकी असामथ्र्यका खण्टन नहीं करते हुए सहकारिकारण यदि अकिंचिकर ही बना रहता है तो उस हालतमें वह सहकारी कारण कहला सकता है क्या ? अर्थात नहीं कहला सकता है।
ये सब आगमके प्रमाण सहकारी कारण को और निमित्तनैमित्तिकभावको वास्तविक तथा कार्यके प्रति सार्थक और उपयोगी ही सिद्ध करते हैं, वेवल कल्पनारोपित या उपचरित नहीं। इसलिए समयसारको 'जीवति लेदभदे-गाथामें पठित उपचार शब्दका अर्थ कल्पना या आरोपन करके निमित्तनैमित्तिकभावरूप जो अर्थ तमने किया है वही सुसंगत है।
इसी प्रकार उक्त गाथाकी ‘इह खलु पौद्गलिककर्मण ................' इत्यादि रूप जो टीका आचार्य अमृतचन्द्रने की है उसमें भी उपचार शब्दका अर्थ निमित्तनमित्तिकभावरूप ही किया गया है। संपूर्ण टीका निम्न प्रकार है--
इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यारमन्यनादेरज्ञानान्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति सम्पद्यमानत्वात् पौद्गलिक कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानधनभृष्टानां विकल्पपराणां परेषामस्ति विकल्पः स तूपचार एव न तु परमार्थः ॥१५॥
अर्थ-पद्यपि आत्मा ( शुद्ध ) स्वभावरूपसे पौद्गलिक कर्मका ( पुद्गलके कर्मरूप परिणमनका ) निमित्तभूत नहीं है तथापि अनादिकालसे उसकी विभावस्थिति रहने के कारण पौगलिक कर्ममें निमिनभूत अज्ञान के रूप परिण मन होनेसे उसके ( आत्माके ) निमित्त बन जाने पर ही पुद्गलका कर्मरूप परिणमन