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शंका-समाधान ४ की समीक्षा
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मानता है और इसी दृष्टि से उसने लिखा है कि "यवहारधर्मको उसका सावक व्यवहारनयसे ही माना जा सकता है, यह परमार्थ कथन नहीं है" । सो उत्तरपक्षका यह लेख आगमविरुद्ध होनेसे पूर्वपक्षको मान्य नहीं है, क्योंकि भव्य जीव आगमके अनुसार जबतक हृदयके सहारेपर होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप अतत्त्वश्रद्धानसे और मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप अतत्त्वज्ञान एवं इनसे प्रभावित क्रिमावती शक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक कम-से-कम संकल्पी पापमय अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्त होकर उसी प्रकारसे भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानपूर्वक क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप शुभ प्रवृत्तिमें संलग्न नहीं होता तब तक वह अपने में निश्चयधर्मको उत्पन्न नहीं कर सकता है ।
यहाँ ये बातें भी विचारणीय है कि उत्तरपक्ष व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मको उत्पत्तिमें व्यवहारनयसे साधक मानकर भी जब उस व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें सर्वथा अफिविस्कर ही स्वीकार करता है तो ऐसी स्थिति में उसे हार्मको निनामकी उत्पत्तिम व्यवहारमयसे साधक कहनेकी किस लिये आवश्यकता हुई ? यद्यपि उसका कहना है कि निमित्तका ज्ञान कराना उस कथनका प्रयोजन है। परन्तु जब वह निमित्तको कार्योत्पत्तिमें सर्वथा अकिंचित्कर मानता है तो उसे उस कार्योत्पत्तिके अवसरपर निमित्तका ज्ञान फरानेकी भी आवश्यकता क्यों हई ? और यदि यह कार्योत्पत्ति में निमित्तका ज्ञान कराना आवश्यक समझता है तो फिर वह निमित्तको कार्योत्पत्ति में सर्वथा अकिचितकर कहनेका माहस कसे कर सकता है?
(२) उत्तरपक्षने त घ• पृ० १४५ पर जो यह अनुच्छेद लिखा है कि अपने दूसरे पत्रकमें अपरपक्षने प्रवचनसार आदि अनेक ग्रन्थों के प्रमाण दिये हैं' इत्यादि । इसमें उसने पूर्वपक्ष द्वारा अपनी मान्यताके समर्थन में द्वितीय दौरमें प्रस्तुत प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंके प्रमाणोंके आधारपर निश्चय और व्यवहार धर्मों के साध्य-साधकभावों को स्वीकार करके भी उसी अनुच्छेदमें आगे जो यह लिखा है कि "किस नयसे उक्त शास्त्रोंमें ये प्रमाण उपस्थित किये गये हैं और उनका आशय क्या है? इस विषय में उसने एक दाब्द भी नहीं लिखा है ।" सो इस सम्बन्ध में उसे (उसरपक्षको) यह ज्ञात होना था कि पूर्वपक्षने तक च० पृ० १३४ गर स्पष्ट लिखा है कि "आपके उस कथनपर हमने प्रथचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रह ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया था कि व्यवहारधर्म (व्यवहाररत्नत्रय) साधक है और निश्चयधर्म (निश्चयरलत्रय) साध्य है" तथा इसका स्पष्ट आशय यही है कि व्यवहाररत्नत्रवस्वरूप व्यवहारधर्म निश्चयरत्नत्रयस्वरूप मिश्चयवर्म की उत्पत्तिमै निमित्त (सहायक) रूपसे साधक है । साथ ही पूर्वपक्षने निश्चय
और व्यवहार दोनों धर्मोंके साध्य-साधकभावको सद्भुतम्यवहारमयका विषय भी स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है। फलतः उत्तरपक्षका "विस नगते उक्त शास्त्रोंमें ये प्रमाण उपस्थित किये गये हैं और उनका आणय या है ?" इत्यादि धन निरर्थक सिद्ध हो जाता है
उत्तरपक्षने उक्त अनुच्छेदमें आगे जो यह लिखा है कि "हमारी दृष्टि नयदृष्टि से उनका आशय स्पष्ट करनेकी है जबकि अपरपक्ष उस स्पष्टीकरणको उपेक्षाकी दृष्टि से देखकर उसका अवलेलना करता है" । इस लेखसे उत्तरपक्षने अपने त च० ५० १३२ पर निर्दिष्ट "इस सम्बन्धी प्रतिशंकामें प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और द्रव्यसंग्रहके विविध प्रमाण उपस्थित कर जो यह सिद्ध किया गया है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक है सो यह कथन असद्भुत व्यवहारनयकी अपेक्षा से ही किया गया है। इस कथनका ही संकेत दिया है। इस तरह उत्तरपक्षने अपने उपत लेखसे यह बतलाना चाहा है कि प्रवचनसार आदि उक्त