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द्वितीय दौर
शंका ३ जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्या ?
प्रतिशंका २ इस प्रश्नके सत्तरमें आपने जीवदयाको धर्म मानते हुए उसकी शुभ परिणामोंमें परिगणना की है। यह एक अपेक्षासे ठीक होते हुए भी आपका यह कथन कि 'उसका आस्रव और बन्धतत्वमें अन्तर्भाव होता है, 'संबर और निर्जरामें नहीं' यह आगमके अनुकूल नहीं है। आपने अपने कपनकी पुष्टिमें जो समयसारकी गाथा २६४ को उद्धृत किया है उसमें अहिंसा आदिको पुण्श्वबन्धका कारण नहीं कहा है किन्तु इसके विषयमें होनेवाले अध्यवसानको ही पुष्यबन्धका कारण कहा है । टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरिने गायाकी टीका प्रारम्भ करते हुए जो 'एवमयमज्ञानात्' पदका प्रयोग किया है उससे भी सिद्ध होता है कि अध्यवसान ही कर्मबन्धका कारण है | यह प्रकरण प्रन्यकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने २४७ वी गाथासे प्रारम्भ किया है और इन गाथाओंमें मूड़, अज्ञानी आदि शन्दोंका प्रयोग करते हुए यह दर्शाया है कि मिय्यादृष्टिका अन्नानमय अध्यवसान भाव ही बन्धका कारण है।
आपने अपने अभिप्रायकी पुष्टिके लिये जो परमात्मप्रकाश की ७१ वीं मायाको प्रमाण रूपमें उपस्थित किया है उसमें भी 'सुहपरिणामे धम्म' पद द्वारा शुभ परिणामको धर्म बतलाया गया है। टीकाकार श्री ब्रह्मदेवने 'धर्मः पुण्यं भवति मुख्यवृत्त्या गद में मुख्यवृत्त्या शब्दसे शुभपरिणाम द्वारा संवर निर्णरा होना भी थोतित किया है । इसके समर्थनमें अन्य आगम प्रमाण भी द्रष्ट व्य हैस्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाको संबर भावनाकी गाथा ३ क्रमिक संख्या २७ निम्न प्रकार है
गुत्ती जोगणिरोहो समिदी य पमादवजणं चेव ।
धम्मो दयापहाणो सुतत्तचिंता अणुणेहा ।।९७।। अर्थ-योगनिरोधाला गुप्ति, प्रमादत्यागरूप समिति, दयाप्रधान धर्म और सुतत्त्व चिन्तनरूप अनुप्रेक्षा है।
संवर भावनामें कही जानेके कारण इस गाथामें प्रोक्त चारों क्रियाएँ संघरको कारण है ! उक्त गाथामें स्पष्ट रूपसे धर्मको दयाप्रधान बतलाया है । संस्कृत टीकाकारने भी इसी बातका समर्थन किया है। पद्मनन्दि पम्चविंशतिकामे लिखा है
___ अन्तस्तत्त्वं विशुद्धात्मा बहिस्तत्त्वं दयाङ्गिषु ।
द्वयोः सन्मीलने मोक्षस्तस्माद् द्वितयमाश्रयेत् ।। ६.६० ।। अर्थ-विशुद्ध आत्मा अन्तस्तत्त्व है और प्राणियोंकी दया बहिस्तत्त्व है । अन्तस्तश्व तथा बहिस्तस्वइन दोनोंके मिलने पर मोक्ष होता है इसलिये इन दोनोंका आश्रय करना चाहिये ।