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शंका ३ और उसका समाधान इसकी पुष्टि संस्कृत टीकाकारने भी की है । बोधपाहुडमें श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है
धम्मो दयाविसुद्धो पबज्जा सव्वसंगपरिचत्ता ।
देवो बवगयमोहो उदययरो भब्बजोवाण ॥२॥ अर्थ---यासे विशुद्ध धर्म, समस्त परिग्रहसे रहित मुनिदीक्षा (प्रव्रज्या); वीतराग देव ये तीनों भभ्य जीवोंका कल्याण करनेवाले हैं । पम्प नन्दिपञ्चविंशतिकामें कहा हैआद्या सद्वतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदा
धर्मतरोरनश्वरपदारोहक निःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिक
__धिङ्नामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥१-८11 अर्थ- यहां धर्मात्मा सज्जनोंको सबसे पहले प्राणियोंकी सदा दया करनी चाहिये, क्योंकि वह समीचौन व्रतसमूहकी आय-प्रमुख है, सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओंकी जननी है, धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है तथा अविनश्वर पद (मोक्षमहल) पर चढ़ने के लिये अपूर्व नसैनी हैं । निर्वध पुरुषके नाभको भी धिक्कार है, उसके लिये समस्त दिशाएं शून्यरूप है। इसी ग्रन्थमें आगे कहा हैदेवः स किं भवति यत्र विकारभावो,
धर्मः स किं न करुणाङ्गिषु यत्र मुख्या। तत् किं तपो गुरुरथास्ति न यत्र बोधः
सा कि विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ।।२-१८॥ अर्थ-वह देव क्या? जिसमें कि विकार भाव हो, वह धर्म क्या ? जहाँ कि प्राणियों में दया नहीं है, वह तप भी क्या है ? जिसमें विशाल ज्ञान नहीं है और वह विभूति भी क्या है ? जिसमें पात्रदान नहीं किया जाता।
दयाको धर्म बतलानेका यही कथन इसी ग्रन्थके छठे अधिकारके ३७ से ४० तकके श्लोकोंमें भी स्पष्ट किया है । श्री कुन्दकुन्दाचार्यने भावपाहुडमें लिखा है
मोहमयगारवेहि स मुक्का करुणभावसंजुत्ता।
से सम्बदुरियखभं हति चारित्तखग्गेण ।।१५९।। अर्थ---जो व्यक्ति मोह, मद, भारवसे रहित और करुणाभावसे सहित हैं वे अपने चारित्ररूपी खड्ग द्वारा समस्त पापरूपी स्तम्भको छिन्न-भिन्न कर डालते हैं।
श्री पवलामें भी वीरसेनाचार्यने दयाको जीवका स्वभाव बतलाया है, जो निम्न प्रकार हैकरुणाए जीवसहायस्स कम्मणिदत्तविरोहादो।
-धवल पुस्तक १३ पृष्ठ ३६२ अर्थ-करुणा जीवका स्वभाव है, अतः उसे कर्मजनित कहनेमें विरोध आता है ।