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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
श्री राजदार्तिक अ० १ सू० २ में सम्यग्दृष्टिके जो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और मस्तिक्य ये चार लक्षण श्री अलंकदेव बतलायें हैं । उनमें अनुकम्पा (दया) भी सम्मिलित है । प्रमाण देखिएप्रशम-संवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् ।
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अर्थ - प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी अभिव्यक्ति हो जाना सराय सम्यग्दर्शनका लक्षण है ।
इनमें अनुकम्पाका अर्थ दया किया गया है। इस कारण दया सम्यग्दर्शनका अङ्ग होने से धर्म
रूप है ।
आपने दयाको शुभ भाव बतलाकर मात्र आस्त्रव और बन्नका कारण बतलाया है यह उचित नहीं है, क्योंकि शुभ भाव संवर और निर्जराके भी कारण हैं। प्रमाण निम्न प्रकार है। श्री वीरसेनाचार्यने जयघवलाके मंगलाचरणकी व्याख्या में कहा है
सुह- सुद्धपरिणामेहि कम्मक्खया भावे तक्खयाणुववत्तीदो ।
अर्थ – यदि शुभ और शुद्ध परिणामोंसे कमका क्षय न माना जाय तो फिर कर्मोका क्षय हो ही नहीं सकता।
इसके आगे वीरसेनाचार्य जयधवला पु० १ १०९ में लिखते हैंअरहंतणमोक्कारो संगहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्सक्स्वयकारओ ति तत्थ वि मुणीणं पवृत्तिपसं गादो ।
अरहंतणमोक्कार भावेण य जो करेदि पयडमदी ।
सो सन्वदुक्खमोक्खं पावद्द अचिरेण कालेन ||३||
अर्थ — अरहंत नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जराका कारण है, इस लिये सरागसंयम के समान उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति प्राप्त होती है।
जो विवेकी जीव भावपूर्वक अरहन्तको नमस्कार करता है वह अतिशीघ्र समस्त दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ।
जिणसाहुगुणुक्तिणपसंसणविणयाणसंपण्णा ।
सुद-सील - संजमरदा धम्मन्झाणं मुणेयत्वा ॥ ५५ ॥
कि फलमेदं धम्मज्ञाणं ? अक्खवयेसु विउलामरसुहफलं गुणसेणीये कम्मणिज्जराफलं च । खवएस पुण असंखेज्जगुणसेढि कम्मपदेसणिज्जरणफलं सुहकम्माणमुक्कस्साणुभाग विहाणफलं च । अतएव धर्मादनपेतं धर्म्यं ध्यानमिति सिद्धं । एत्थ गाहाओ
होति सुहासव संवर णिज्जरासुहाई बिउलाई । ज्झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीण धम्मस्स ॥५६॥ जह वा घणसंघाया खणेण पवणाया विलिज्जति । झाणपणोवया तह कम्मघणा विलिज्जति ॥५७॥
-धवला पु० १३ पृ० ७६-७७
अर्थ -- जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दानसम्पन्नता, श्रुत शील और संयम में रत होना ये सब बातें धर्मध्यानमें होती हैं ऐसा जानना चाहिये ।