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शंका ३ मोर उसका समाधान
शंका- इस धर्मध्यानका क्या फल है ?
समाधान — अक्षपक जीवोंको देव पर्यायसम्बन्धी विपुल सुख मिलना उसका फल है और गुणश्रेणी में कर्मोकी निर्जरा होना भी उसका फल है । तथा क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभ कर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल हूँ । अतएव जो धर्मसे अनपेत वह धर्मध्यान है यह बात सिद्ध होती है । इस विषय में गाथाएं
उत्कृष्ट धर्मध्यानसे शुभ आलय, संवर, निर्जरा और देवोक सुख ये शुभानुवन्धी विपूल फल होते हैं ॥ ५६ ॥
जैसे मेघपटल पवन से ताडित होकर क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं वैसे ही ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्ममेघ भी विलीन हो जाते ।। ५७ ।।
देवसेनाचार्य कृत भावसंग्रहमें भी कहा है
५७
आवासपाई कम्मं विज्ञावच्च च दाण- पूजाई |
जं कुणइ सम्मदिट्ठी तं सब्वं णिञ्जरणिमित्तं ॥ ६१०||
अर्थ — जो सम्यग्दृष्टि पुरुष प्रतिदिन अपने आवश्यकोंका पालन करता है, व्रत, नियम आदिका पालन करता है, वैयावृत्य करता है. पात्रदान देता है और भगवान् जिनेन्द्रका पूजन करता है उस पुरुषका वह सब कार्य कर्मोकी निर्जराका कारण है ।
श्री प्रवचनसारमें गाथा ७९ के बाद श्री जयसेन स्वामीकी निम्न प्रकार गाथा हैतं देवदेवं जदि गणवस गुरुतिलोयस्स |
पणमंत जे मणुस्सा ते सोक्ल अक्खयं जति ||२॥
अर्थ — उन देवाधिदेव जिनेन्द्रको, गणधरदेवको और साधूमहाराजको जो मनुष्य वन्दन करता है वह अक्षय अर्थात् मोक्ष सुखको प्राप्त करता है।
श्री वल पुस्तक ६ पृष्ठ ४२७ पर निम्नलिखित उल्लेख है
कथं जिणविनदंसणं पढमसम्मत्तप्पत्तीए कारणं ? जिणविनदंसणेण णिति णिकाचिदस्स विमिच्छत्तादिकम्म कळावस्स खयदंसणादो ।
अर्थ — शंका -- जिनबिम्बका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण किस प्रकार है ?
समाधान -- जिनबिम्ब दर्शन से निर्धात्ति और णिकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्बका दर्शन प्रथम सम्यक्स्थकी उत्पत्तिका कारण है ।
जयधवल पुस्तक १ पृष्ठ ३६९ पर उल्लेख है
तिरयणसाहण विसय लोहादो सग्गापयग्गाणमुप्पत्तिदंसणावो ।
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अर्थ – रत्नत्रय साधन विषयक लोभसे स्वर्ग और मोक्षको प्राप्ति देखी जाती है ।
आपने क्ष्माको पुण्यरूप धर्म स्वीकृत किया है सो पुण्य भी साधारण वस्तु नहीं है। उसे भी जिनसेन
स्वामीने
पुण्यात्तीर्थ करश्रियं च परमां नैःश्रेयसीचा स्तुते !