________________
अपपुर (खामिया) शस्त्रपर बार उसको समीक्षा महापुराणके प्रथम भाग पृष्ठ २५ श्लोक १२९ में मुक्तिलक्ष्मीका साधक बतलाया है । श्री भावसंप्रहमें भी कहा है :----
__सम्मादिट्ठीपुणं ण होइ संसारकारणं णियमा ।
मोक्खस्स होइ देउं जइ विणियाण ण सा कुणह ।।४०४।। अर्थ-सम्यम्दृष्टि द्वारा किया हुआ पुण्य संसारका कारण नियमसे नहीं होता है। यदि सम्यग्दृष्टि पुरुष द्वारा निदान न किया जाय तो वह पुण्य मोक्षका ही कारण है।
___ यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति भस्था तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति । नो चेत् पुण्यबन्धकारणं तमेवेति ॥
-परमात्मप्रकाश अ० २ गा० १९१ टीका अर्थ-यदि निज शुद्ध पारमा हो उपादेय है ऐसा मानकर उसके साकपनेसे उसके अनुकूल तप करता है और शास्त्र पढ़ता है तो वह परम्परासे मोक्षका ही कारण है। ऐसा नही कहना चाहिए कि वह केवल पुण्यबंधका ही कारण है।
शंका ३ जीवदयाको धर्म मानमा मिथ्यात्व है क्या ?
प्रतिशंका २ का समाधान उक्त शंकाका जो उत्तर दिया गया था उस पर प्रतिशंका करते हुए लगभग ऐसे २० शास्त्रोंके प्रमाण उपस्थित कर यह सिद्ध करनेको चेष्टा की गई है कि जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व नहीं है | इसमें संदेह नहीं कि उनमें कुछ ऐसे भी प्रमाण है जिनमें संवरके कारणोंमें दयाका अन्तर्भाव हुआ है। जयधवलाका एक ऐसा भी प्रमाण है जिसमें शुद्ध भावके साथ शुभ भावको भी कर्मक्षयका कारण कहा है । श्री घवलाजीके एक प्रमाणमें यह भी बतलाया है कि जिनविम्बदर्शनसे निति-निकाचित छन्धकी थुच्छित्ति होती है । इसीप्रकार भावसंग्रहमें यह भी कहा है कि जिनपूजासे कर्मक्षय होता है। ऐसे ही यहाँ जो अनेक प्रमाण संग्रह किये गये हैं उनके विविष प्रयोजन बतलाकर उन द्वारा पर्यायान्तरसे दयाको पुण्य और धर्म उभयरूप सिद्ध किया गया है । ये सब प्रमाण तो लगभग २० ही है । यदि पूरे जिनागममें से ऐसे प्रमाणोंका संग्रह किया जाय तो एक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ हो जाय। पर इन प्रमाणों के आधारसे क्या पुण्यभावरूप दयाको इतने मात्र से मोक्षका कारण माना जा सकता है ? आचार्य अमृतचन्द्रने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें निर्जरा और पुण्यके कारणरूप सिद्धान्तका निर्देश करते हुए लिखा है
येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१२॥ येनाशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनाशेन तु रागस्तेनांशेनास्य अन्धनं भवति ॥२१३।।