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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा रूप दुरभिनिवेश कहते है । इसी तरह जीवको भावयतो शक्तिका हृदयके सहारेपर ही व्यवहारसम्यग्दर्शनके रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव तस्वमें आस्था व अतत्त्व अनास्था रखने लगता है तथा धीतरागी देव, वीतरागताके पोषक शास्त्र और वीतरागताके मार्गपर आरुढ़ गहमें आदरभाव व सरागी देव, सरागताके पोषक शास्त्र और सरागताके मार्गपर आरूढ़ गुरूमें अनादर भाव (माध्यस्ध्यभाव) रखने लगता है। इसे जीयका प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्सिक्य भाष रूप सभ्यअभिनिवेश कहते है।।
(ग) जीवकी क्रियावती शक्तिका मन, वचन और कायके सहारेपर व्यवहार मिथ्याचारिक रूपम ऐसा परिणमन होता है कि जीव भाववती शक्तिके परिणाम स्वरूप आसक्तिवश होनेवाला संकल्पी पालरूप अशुभ प्रवृत्ति किया करता है।
(घ) जीवकी क्रियायती शक्तिका मन, वचन और कायके सहारेपर ही व्यवहार अविरतिके रूपमें ऐसा परिणमन होता है कि जीव भाव बती शक्तिके परिणामस्वरूप अशिक्तवश होनेवाली आरंभी पापरूप अशुभ प्रति किमा करता है ।
(च) जीवकी क्रियावती शक्तिका मन, वचन और कायके सहारेपर ही ऐसा भी परिणमन होता है कि जीव कर्तव्यवश होनेवाली पुष्यरूप शुभ प्रवृत्ति किया करता है।
(छ) जीव अपनी क्रियावती शक्तिको मन, वचन और कायके सहारेपर आसक्तिवश और अशक्तिवश होनेवाली पाप परिणतिस्वरूप अशुभ प्रवृत्तिसे व मन, वचन और कायके सहारेपर ही कर्तव्यवश होनेवाली पुण्यपरिणतिस्वरूप शुभ प्रवृत्तिसे मनोगुप्ति, बचनगुप्ति और कायगुप्तिके रूपमें यथाविधि निवृत्तिको प्राप्त हो जाया करता है।
___ यहां इतना विशेष समन्नना चाहिये कि शुभ और अशुभ प्रवृत्तियां कर्मबन्धका कारण होती है और शुभ तथा अशुभ प्रवृत्तिसे यथाविधि निवृत्ति कर्मसंवर और कर्मनिर्जरणका कारण होती है। इस विषयका विस्तृत विवेचन प्रकृत प्रश्नोत्तर के सामान्य समीक्षा-प्रकरणमें किया जा चुका है।
यहां यह भी विशेष समझ लेना चाहिए कि जौवकी भाववती शक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाले परिणमनके रूप में निर्णीत उक्त व्यवहार मिथ्यादर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन तथा इसी भाववती शक्तिके मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाले परिणमनके रूपमें नित उक्त व्यरहार मिथ्याजाम और व्यवहार सम्यग्ज्ञान अपने-अपने रूपमें कर्मबन्धक या कर्मसंवर ब कर्म-निर्जरणके साक्षात कारण नहीं होते है। कर्म-बन्ध या कर्मसंवर व कर्म-निर्जरणके अपने-अपने रूपमे साक्षात कारण तो जीवकी क्रियावती शक्तिके उपर्युषप्त प्रकारसे प्रवृत्तिरूप या निवृत्तिरूप आत्मपरिणमन ही हुआ करते है । भाववती शक्तिके वे परिणमन क्रियावती शनिके कर्मबन्ध या कर्मसंबर और कर्मनिर्जरण में कारणभूत उक्त परिणमनोंको प्रभावित करने मात्रसे चरितार्थ हो जाया करते है।
तात्पर्य यह है कि भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप ज्ञान और श्रद्धामका सर्वथा अभाव व उनका मिथ्या या सम्यक परिणमन इन में से कोई भी कर्मबन्च या कर्मसंबर और कर्मनिर्जरणके कारण नहीं हआ करते है। तथा न अचेतन मन, वचन और कापकी क्रियाएं ही कर्मबन्धके या कर्मसंबर और कर्मनिर्जरणमें कारण होती है, केवल जीवकी क्रियावती शक्तिके उक्त प्रकारको प्रवृत्तिरूप या उक्त प्रकारकी प्रवृत्तिसे निवृत्तिरूप परिणमन ही मथायोग्य कर्मबन्धके या कर्मसंवर और कर्म-निर्जरणके कारण हुआ करते हैं ।