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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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करता है ? इसपर उत्तरपक्षको गहराईसे सोचना एवं विचार करना चाहिए, क्योंकि उसकी मान्यता है कि यह सब सहज योगके रूपम होता है। क्या इसे कोई भी बुद्धिमान स्वीकार कर सकता है?
उत्तरपक्षने अपने उपर्यस्त वक्तव्यम कार्योत्पत्तिके अवसरपर पुरुषके योग और विकल्पकी समवेत स्थितिको स्वयं स्वीकार किया है। उसने यह अवश्व कहा है कि "वस्तुतः एक द्रव्य दुसरे द्रव्यको क्रियाका का त्रिकालमें नहीं हो सकता" । उसमें पूर्वपाको वियाद कहाँ है । परन्तु इससे वहाँ पुरुषके योग और विकल्पकी सहायक होने रूपसे अनुभवगम्य स्थितिका निषेध नहीं किया जा सकता है और न उसका असम्यगमा ही सिद्ध किया जा सकता है।
बात वास्तव में यह है कि सभी द्रव्योंके अपने परिणमन-स्वभाषके आधारपर होनेवाले षणहानिवृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमन निःसर्गतः होनेके कारण अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं । इतना ही नहीं, सभी शुद्ध द्रव्यों के अपने परिणमन-स्वभावके आधारपर एक-दूसरे द्रव्यके निमित्तसे होनेवाले स्वपरप्रत्यय परिणमन भी अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं. क्योंकि श्रर्म, अधर्म, आकाश, काल और अणुरूप पुद्गल ये सभी शुद्ध दव्य अचेतन है। आत्मा यणि नेतन है तथापि उसके शुद्ध हो जानेपर उसके जो उक्त प्रकारके स्वपरप्रत्यय परिणमन होते है वे भी अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं, क्योंकि उनमें बुद्धिके अवलम्बनमत मस्तिष्कका अभाव पाया जाता है । यद्यपि एकादश गुणस्पनिस लेकर पंश स्थान और नगर बाथ सम्बद्ध रहनेके कारण आत्मा मस्तिष्क सहित रहा करता है। परन्तु चतुर्दशगुणस्थानमें मस्तिरकका सद्भाव रहते हुए भी अपनी निष्क्रियताके कारण यह आरमा बुद्धिके उत्पन्न होने में सहायक नहीं होता है अतः आत्माके चतुर्दशगुणस्थान में जो स्वपरप्रत्यय परिणमन होते हैं ये अबुद्धिपूर्वक ही हुआ करते हैं । यद्यपि एकादशगुणस्थानसे लेकर प्रयोदशगुणस्थान तक आत्मामें नोकर्मभूत मन, बचन और कायके सहयोग पूर्वक क्रिया होती रहती है। परन्तु उराकी वह क्रिया नोकर्मभुत उक्त मन, वचन और कायमें होनेवाली निसर्गज क्रियाके आधारपरही हुआ करती है। इस क्रियाम आत्मा बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त नहीं होता, अतः उन गुणस्थानों में विद्यमान आत्माके स्वपरप्रत्यय परिणमन भी अबुद्धिपूर्वक ही होते हैं । यतः प्रथमगुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक आत्माकी बहत-सी क्रियायें द्धिपूर्वक हुआ करती हैं और उसकी बहुत-सी क्रियायें अबुद्धिपूर्वक हा करती है, अतः इन गुणस्थानों में विद्यमान आत्माके स्वपरप्रत्यय परिणमन यथायोग्य बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक दोनों ही प्रकारसे होते हैं। पुगल स्कन्धोंके जो स्वपरप्रत्यय परिणम न होते हैं वे भी उन स्कन्धोंकी अचेतनता के कारण अबुद्धिपूर्वक ही होत है । इस तरह यह ऐसी वास्तविकता है जिसे उत्तरपक्ष टाल नहीं सकता ।
इरा विवेचनसे यह निर्णीत होता है कि कार्योत्पत्तिमें जीवके जितने भी संकल्प विकल्प और प्रयत्न होते हैं उन्हे वहाँ कदापि अकिंचित्कर नहीं माना जा सकता है । इतना अवश्य है कि उसके वे संकल्प, विकल्म और प्रवल कुत्रचित विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति, सहायक होने रूपसे कार्यकारी होते हैं । लेकिन जहाँ उनकी सहायतामे विवक्षित कार्योत्पत्ति नहीं होती है वहाँ ऐसा जान लेना चाहिए कि या तो उपादानभत वस्तूमें उस कार्य की योग्यताका अभाव है या जीवके संकल्प, विकल्प और प्रयत्न तीनोंमें समन्वयका अभाव है अथवा अन्य साधन-सामग्री का अभाव या बाधककारणोंका सद्भाव बना हुआ है।
___ इस तरह उत्तरपक्षने त० च पृ०७० पर जो उपर्युक्त कथन किया है और उसमें उसने कार्योस्पत्ति के प्रति जो उपादान और निमित्त भूत्त सामग्रीक सहजयोगका प्रतिपादन किया है वह युक्ति और अनुभवके विरुद्ध है तथा पूर्वोश प्रकार आगमके भी विरुद्ध है और लोकव्यवहार के विरुद्ध तो वह है हो ।