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शंका-समामा ४ को समीक्षा
वस्तुविज्ञानकी दृष्टिसे नमव्यवस्थाका रूप
___ वस्तुविज्ञानकी दृष्टिसे जैन शासनमें पदार्थको तत्त्वार्य सूत्रके "सद् द्रश्यलक्षणम्' (५-२९) व "उत्पादव्ययधोपयुक्तं सत" (५-३०) इन दो सूत्रोंद्वारा उत्पाद, व्यय और धौख्यात्मक मान्य करके "अपितानपितसिद्धः" (५-३२) सूत्रद्वारा उसके ज्ञान व प्रतिपादनकी व्यवस्थाको विवक्षाधीन बतलाया गया है। इससे वस्तुविज्ञानकी दृष्टिरो नयव्यवस्थाका रूप यह बनता है कि पदार्थ में जो भोव्यांश है वह द्रव्यांश है और जो उत्पादांश और व्ययांश है व पर्यायांश है। इनमेंसे द्रव्यांशका ज्ञान व प्रतिपादन तो द्रव्याथिकानय है व पर्यायांशका ज्ञान व प्रतिपादन पर्यायाथिकनय है। लोकजीवनमें नयव्यवस्थाका रूप
लोकजीवनको दृष्टि से नयव्यवस्थाका रूप इस प्रकार बनता है कि वैद्य एक ही वस्तुका एक रोगीके लिए उपभोग करने का आदेश देता है व अन्य रोगीके लिए उस वस्तुका उपभोग न करनेका आदेश देता है। बाजारमें जिम गालीको अनुचित माना जाता है वह गाली विवाहमें यदि गाने के रूपमें प्रयक्त न की जाये अर्थात् गाली न गायी जाये तो मेहमान अपना अनादर मानता है । एक ही थानके व.पड़ेसे एक व्यक्ति दर्जीको कोटनिर्माणका आदेश देता है, दूसरा व्यक्ति उस दजीको उस कपड़री कमीज, कुर्ता आदिवे, निर्माणका आदेश देता है । ठंड ऋतुमे पहिनने के कपड़े अन्य होते है और भीष्म ऋतु में पहिनने के कपड़े अन्य होते हैं । इत्यादि उदाहरणोंसे जाना जाता है कि लोकजीवन हानि-साभ, औचित्य-अनौचित्य एवं आवश्यकता-अनावश्यकता आदिरूप नयव्यवस्थाके बिना सुचारू रूपसे नहीं चल सकता है । आध्यात्मिक जीवन में नयव्यवस्थाका रूप
अध्यात्मका संबंध जीवी संसारसे मवितके साथ है। इस बात को ध्यान में रखकर जैनागममें नयव्यवस्थाको स्थान दिया गया है, जो निम्न प्रकार है
यद्यपि जीवका स्वभाव स्वतःसिद्ध होनेसे अनादि, अनिधन, स्वाश्रित और अखण्ड है, परन्तु पुदगलकमोंके सहयोगरो जसका वह स्वभाव सादि, सान्त. पराश्रित और खण्ड-खण्ड हो रहा है अर्थात् जीवका स्वभाष अषिकृत और अविनाशी होकर भी पुदगलकर्मके संयोगसे विकृत और विनाशशील हो रहा है। जैन शामनमें जीवको इन दोनों प्रकारको दशाओंमेसे स्वभावदशातो तो निश्चय, यथार्थ, मुख्य, सत्यार्थ, स्वाश्रित आदि नामोंसे पुकारा गया है और स्वभावदशासे विपरीत विभावदशाको व्यवहार, अयथार्थ, उपचरित, असत्यार्थ, पराश्रित आदि नामोंसे पुकारा गया है। इनमें निश्चय आदिरूप दशाका ज्ञान व प्रतिपादन निश्चयनय है एवं व्यवहार आदिरूप दशाका ज्ञान व प्रतिपादन व्यवहारनय है।
जो जीव पुद्गलकर्भ संयोगजन्य विभावदशासे मुक्त होना चाहता है उसे जैन शासनमें यह उपदेश दिया गया है कि वह सर्वप्रथम विभाव दशाके मार्गको त्यागकर स्वभावदशाके मार्गको ग्रहण करें । इसके लिए उसे दो बातें आवश्यक बतलायीं गई है-एक मक्ति और दूसरी मक्तिका मार्ग। इनमेसे भक्ति तो जीवका लक्ष्य होता है और जिसपर आरूढ होनसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है उसे मोक्षमार्ग कहते हैं । इस मोक्षमागके भी दो रूप होते है-एक तो यह कि जिस मार्गसे जीव अनादिकालसे संसारका निर्माण करता आ रहा है उसका धीरे-धीरे क्रमशः त्याग करे और दूसरा यह कि जिस मार्ग से उसे संसारसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है उसे पहण करे। इनमें से मोक्ष पानेके साक्षात् मार्गको तो मोक्षका निश्चयमार्ग, यथार्थमार्ग, मुख्यमार्ग, सत्यायमार्ग