________________
शंका-समाधान २ की समीक्षा
२६३
निर्जरा और मोक्ष तत्त्वमें होता है ।" सो इसमें उत्तरपक्षको ही इतना ध्यान और देना है कि शुभ भाव और शुद्धभाव के अतिरिक्त तीसरी जीवदया व्यवहारधर्मरूप भी होती है और उस व्यवहारधर्मरूप जीवदयाका ही अन्तर्भाव पूर्वोक्त प्रकार आस्रव और बन्धके साथ संबर और निर्जरा तत्वमें होता है । सुखभावरूप जीवदया का नहीं। यदि उत्तरपक्ष जीवदयाके पुण्यभाव और शुद्धभाव रूप दोनों भेदोंके साथ तीसरा व्यवहारधर्म रूप भेद भी मान्य कर लेता और उन तीनोंके कार्यका विभाजन भी आगम और युक्सिके आधारपर सहीरूपमें में समझ लेता तो फिर अणुमात्र भी विवाद नहीं रह जाता । एवं उत्तरपक्ष द्वारा अपने पक्ष के समर्थन में उपस्थित प्रवचनसारगाथा १८१ और १५१ तथा तत्वार्थसार पच २५ और २६ का भी युक्तिसंगत समन्वय हो जाता, क्योंकि इनके सम्बन्ध में पूर्वपक्षको विवाद नहीं है। उत्तरपक्ष को तो अपनी भ्रमबुद्धिसे विवाद समझ लेनेके कारण ही निरर्थक प्रयास करना पड़ा है। बोधप्राभूतमें उत्तरपक्ष दयाका जो वीतराग अर्थ ग्रहण करना चाहता है वह भो विवादग्रस्त नहीं है । परन्तु उसे यह ध्यान रखना चाहिए था कि वीतराग भाव जहाँ जीवकी भाववती शक्ति के परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप होता है वहीं वह उस शुद्ध स्वभावरूप निश्चयधर्मकी उत्पत्ति कारणभूत जीवको क्रियावती शक्ति के परिणमनस्वरूप व्यवहारधर्मरूप भी होता है । धवल पृस्तक १३ के "करुणाए जीवसहावस्स” — इत्यादि वचनका क्या आशय है, इसे में सामान्य समीक्षा में स्पष्ट कर चुका हूँ। इसलिए उतरपक्षने इसके सम्बन्ध में त० च० पृ० ११५ पर जो कुछ लिखा है वह विशेषकी वस्तु नहीं
है।
(१०) उत्तरपक्षनेत० च० पू० ११५ पर अपने अभिमतकी पुष्टि में अपरपक्षने भावसंग्रहको "sti" इत्यादि गाथा उपस्थित की है।" आदि कथन किया है । परन्तु उत्तरपक्षने उदय कथनमें गाथाके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उससे ज्ञात होता है कि वह गाथाके अभिप्रायको नहीं समझ सका है । गाथाका अभिप्राय इस रूपमें लेना चाहिए कि वास्तव में तो सम्यग्दृष्टिका पुण्य मोक्षका ही कारण होता है परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि वह निदान न करे। इसका तालार्य यह है कि औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव तो निदान करते ही नहीं है, केवल क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ही ऐसा है जिसके मोहनीयकर्मकी सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय रहनेके कारण उसके प्रभाव में निदान सम्भव है। गायामें जो "पुष्णं" पदका पाठ है उसका अर्थ व्यवहारधर्मरूप पुष्प्रभाव हो ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि सम्यदृष्टि जीवके व्यवहार धर्मरूप पुण्वभाव ही सम्भव है । केवल पुण्यभाव सम्भव नहीं है। इस बातको सामान्य समीक्षामें स्पष्ट किया जा चुका है तथा व्यवहारधर्मरूण पुण्यभाव शुभ प्रवृत्तिके रूपमें मलय और बन्धका कारण होते हुए भी अशुभसे निवृत्तिके रूपमें संवर और निर्जराका भी कारण होता है। यह बात इसी प्रश्नोत्तरको समीक्षा में स्थान, स्थानपर स्पष्ट की जा चुकी है। फलतः उसकी मोक्षकारणता असंदिग्ध
1
(११) उत्तरपक्षने त० ० पृ० ११६ पर अपने समग्र कथमका सार चार विकल्पोंमें निरूपित किया है । वे चारों विकल्प इस प्रकार हैं कि (१) दयापद आगम में दोनों अर्थों में व्यवहृत हुआ है - पुण्यभावके अर्थ में भी और वीतराग भाषके अर्थ में भी । (२) शुभभाव परभाव होनेके कारण उसका यथार्थमें आम्रव और बन्ध तत्त्वमें हो अन्तर्भाव होता है । जहाँ भी इसे निर्जराका हेतु कहा है वहाँ सा कथन व्यवहारनयसे ही किया गया । (३) वीतरागभाव निजभाव होनेसे उसका अन्तर्भाव संवर, निर्जरा और मोक्षतत्व में होता है । (४) वीतरागभाव व्यवहारसे आस्रव और बन्धका कारण है, यह व्यवहार वीतरागभावपर लागू नही होता, क्योंकि वह सब प्रकार के व्यवहारको दृष्टिमें गौणकर एकमात्र निश्चयस्वरूप शायक आत्माके बालम्बनसे तन्मयस्वरूप