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शंका-समाधान १ की समीक्षा
रूपमें अयथार्थ अर्थात् यवहार या उपचरित कारण मानता है यहाँ उत्तरपक्ष उसे वहाँ पर सहायक न होने के आधारपर अकिंचित्कररूपमै अपथार्थ अति व्यवहार या उप-वरित कारण मानता है। इसी तरह दोनों पक्षोंके मध्य इस मान्यताके विषयमें भी कोई विवाद नही है कि उपदान भायलिंगका यथार्थ अर्थात् निश्चय कारण होनेसे निश्चयनका विषय है और चारित्रमोहनीयकर्मका क्षयोपशम अयथार्थ अर्थात् व्यवहारमा उपचरित कारण होनेसे व्यवहारनवका विषय है। इसमें भी विवाद यही है कि जहां पूर्वपक्ष चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमको भावलिंग उपादानका सहायक होनेके आधारपर कार्यकारीरूपमें अययार्थ व्यवहार या उपचरित कारण मानकर व्यवहारनवका विषय मानता है वहीं उत्तरपक्ष उस चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमको भालिंगमें उपादानका सहायक न होनेके आधारपर अकिचिकर रूपमें अयथार्थ अर्थात व्यवहार या उपचरित कारण मानकर व्यवहारमयका विषय मानता है। यह बात पूर्व में भी निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्य-कारणभावको लेकर समाप्टकी जा चुकी है। उत्तरपक्ष निष्पक्ष विचार करे, तो वह समझ जायेगा कि उसका कथन यथार्थ नहीं है। पूर्वपक्ष का कथन ही यथार्थ है। पंचास्तिकाय गाथा ५८ और ५९ को इसी दृष्टिसे देखना चाहिए, तभी उनके अर्थ एवं आशयको ठीक तरहसे हृदयंगम किया जा सकेगा।
कथन ८० और उसकी समीक्षा
(८०) आगे उत्तरपक्षने त० च० पू० ७० पर ही यह कथन किया है कि "आगे अपरपक्षने निमित्त व्यवहारको यथार्थ सिद्ध करनेके लिए उलाहनक रूपमें जो कुछ भी वक्तव्य दिया है उससे इतना ही ज्ञात होता है कि अपरपक्ष नयकी अपेक्षा या वक्तव्य आगममें किया गया है इस ओर ध्यान न देकर मात्र अपनी मान्यताको आगम बनाने के पक्ष है, अन्यथा वह पक्ष असद्भुत व्यवहारनयके वक्तव्यको असद्भुत मानकर उस नमकी अपेक्षा कथन आगममें किस प्रयोजनसे किया गया है इसपर दृष्टिपात करता।"
इसकी समीक्षा करनेसे पूर्व में यह बतला देना चाहता हूँ कि उत्तरपक्षने अपना उक्त कथन पूर्वपक्षके त० च०५.२८ पर निर्दिष्ट "आपके उपयक्त सिद्धांतत्र अनुसार जन उपादान अपने अनसार कार्य कर ही लेता है तब निमित्तकी आवश्यकता हो क्या रह जाती है ? चूंकि आगममें सर्वत्र यह प्ररूपण किया गया है कि निमिस तथा उपादान का उभयकारणोंसे ही कार्य होता है और निमित्त हेतुका भी होता है अतः शब्दों में तो आपने उसे (निमित्तको) इन्कार नहीं किया, किन्तु मान शब्दोंम स्वीकार करते हुए भी आप निमित्तभूत वस्तुमें कारणत्व भाव स्वीकार नहीं करते हैं तथा निमित्तको अविचिकर बतलाते हुए मात्र उपादानके अनुसार ही अर्थात एकान्ततः उपादानसे ही कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं। आगमके शब्दोंको केवल निवाहने के लिए यह कह दिया गया कि निगित्तकी प्राप्ति उपादानके अनुसार हुआ करती है ताकि यह न समझा जाये कि आगम माननीय नहीं है। इस एकान्त सिद्धांतकी मान्यतासे यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्तकारण मात्र शब्दोंमें माना जा रहा है, वास्तव में उसे कारण रूप नहीं माना गया है" इस कपनको आलोचना करते हुए किया है।
उत्तरपक्षके सक्त मन्तव्यपर यहाँ विमर्श किया जाता है। स्मरण रहे कात्पित्तिके प्रति उपादान और निमित्त दोनों कारणों के विषय में जिनागमका क्या अभिप्राय है, इसे पूर्वमें अनेक आगमवननोंके उद्धरण देकर स्पष्ट किया गया है । फिर भी आश्चर्य है कि उन स्पष्ट आगमके उद्धरयो बाबजूद उत्तरपक्ष अपने आग्रहपर भान है । यहाँ पुनः और स्पष्ट किया जाता है।