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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
(ख) उत्तरपक्ष के रामान पूर्वपक्ष भी मानता है कि वे रागादि भाव जीवके ही अपने भाव हैं, पुद्गलके अपने भाव नहीं हैं और वे जीवमें ही उत्पन्न होते हैं, पुद्गलमें नहीं ।
(ग) उत्तरपक्ष के समान पूर्वपक्ष भी मानता है कि जीव हो उन रूप परिणत होता है। पुद्गल कदापि उन रूप परिणत नहीं होता। और जीव ही उन रूप परिणत होनेका व्यापार करता है। पुद्गल उन रूप परिणत होने का कदापि व्यापार नही करता । लेकिन इस विषय में इतना मतभेद है कि जहाँ पूर्वपक्ष पुद्गलको जीवकी उन रूप परिणति में नियमसे सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष पुद्गलको जीवकी उन रूप परिणतिमं सहायक न होने रूपसे कार्यकारी नहीं मानता तथा उसे सर्वथा अकिचित्कर बतलाता है ।
६.४
(घ) पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष की इस मान्यताको भी स्वीकार करता है कि 'एक द्रव्यकी परिणमन क्रियाको दूसरा द्रव्य विकालमें नहीं कर सकता, क्योंकि यदि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्रिया करने लग जाय तो समयसार गाथा ९९ के अनुसार दोनोंमें तन्मयपनेका प्रसंग होनेसे एकताको प्रसक्ति होती है या समयसार गाथा ८५ के अनुसार दो क्रियाओंका कर्त्ता एक द्रश्यको स्वीकार करनेका प्रसंग आता है, जो आगनके विरुद्ध है ।' इसीप्रकार समयसार गाथा १०३ को जिनाशाके रूपमें जैसा उत्तरपक्ष प्रमाण मानता है उसी प्रकार पूर्वपक्ष भी मानता है ।
(च) पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष के इस कथन को भी स्वीकार करता हूँ कि 'जीव में होनेवाले मोह, राग और द्वेष आणि भाव अशुद्ध निम्न अपेक्षा दिने उसे उत्तरपक्ष के इस कथन में भी कोई विवाद नहीं है कि "इसी तथ्य को ध्यान में रखकर उक्त (५० -५६) गाथाओं की टीकाओं में आचार्य जयसेनने अशुद्ध पर्यायार्थिक निश्चयकी अपेक्षा उन्हें जीवरूप ही स्वीकार किया है" ।
(छ) पूर्वपक्षको उत्तरपक्षकी यह बात भी मान्य है कि "कर्ता कर्माधिकार गाथा ८८ में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने ओर उसको टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र ने मोह आदि भावोंको जीवभावरूप स्वीकार किया है" ।
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(ज) पूर्वपक्षको उत्तरपक्ष के इस कथन में भी विरोध नहीं है कि "परमपारिणामिक भावको ग्रहण करने शुद्ध निश्चय के विषयभूत चिचमत्कार ज्ञायक स्वरूप आत्माकै लक्ष्यसे उत्पन्न हुई आत्मानुभूति में उनका भान नहीं होता, इसलिये ये रागादि भाव जीवके नहीं, ऐसा समयसार गाथा ५० से गाथा ५६ तककी गाथाओं में कहा गया है" तथा इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए उक्त गाथाओंको टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र जो कुछ लिखा है और जिसे उत्तरपक्षने अपने कथनमें प्रमाणरूपसे उद्धृत किया। वह भी पूर्वपक्षको मान्य है ।
(झ) उत्तरपक्ष ने द्रव्याधिकन्यके भेदोंमें परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनयको स्वीकार करते हुए उसकी पुष्टिमें जो आलापाद्धति और नयचक्रादिसंग्रह वचनोंको प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है वह भी पूर्वपक्षको उत्तरपक्ष समान ही मान्य है ।
(c) इसी तरह उत्तरपक्षने त० च० पृ० ४० पर तात्पर्य के रूपमें जो लिखा है वह तो ठीक है, परन्तु उसने उसी अनुच्छेद में जो यह लिखा है कि "आसन्नभव्य ऐसे अभेदस्वरूप आत्माको लक्ष्य कर (ध्येय बनाकर सन्मय होकर परिणमता है उसे जो आत्मानुभूति होती है उसे उस कालमें रागानुभूति विकार्मेल