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शंका-समाधान की समीक्षा नहीं होती" । इसके विषयमें मेरा कहना है कि रागानुभूप्तिसे पृथक् शुद्ध आत्मानुभूति ११ गुणस्थानसे पूर्व किसी भी जीवको होना संभव नहीं है क्योंकि १०३ गुणस्थान तक जीवोंके प्रकृति और प्रदेश बन्धके अलावा स्थिति और अनुभाग बन्ध भी होता है। यह बन्ध इस बातको बतलाता है कि वहाँ रागानुभूतिसे पृथक शुद्ध आत्मानुभूतिका होना संभव नहीं है।
(1) उत्तरपक्षने त० प० १० ४० पर आगे लिखा है कि "इस प्रकारके रागादि भाव जीवके नहीं है" इत्यादि, सो वह भी हम मानते हैं । इस अनुच्छेदके आगे जो "यह वस्तुस्थिति है" इत्यादि अनुच्छेद लिखा है तथा इसके समर्थनमें उसने जो समयसार कलश १०३ को उदषत किया है वह भी पूर्वपक्षको मान्य है। अन्तमें उसने त. च०१० ४१ पर लिखा है कि ''इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि आत्मामें रागादिकी उत्पत्ति मुख्यतया पुद्गलका आलम्बन करनेसे होती है, स्वभावका मालम्बन करनेसे नहीं होती, इसलिये तो उन्हें अध्यात्ममें पौगलिक कहा गया है। पुद्गल आप कर्ता होकर उन्हें उत्पन्न करता है या वे पुद्गलकी पर्याय है इसलिये पौद्गलिक नहीं कहा गया है । इस अपेक्षासे विचार करने पर तो जीव आप अपराधी होकर उन्हें उत्पन्न करता है और आप तन्मय होकर मोह, राग, द्वेष आदि रूप परिणमता है इसलिए वे चिदविकार ही हैं। फिर भी जायक स्वभाव आत्माके अबलम्बन द्वारा उत्पन्न हुई आत्मानभतिमें उनका प्रकाश नहीं होता, इसलिये उससे भिन्न होनेके कारण व्यवहारनयसे उन्हें जीवका कहा गया है । इसप्रकार समयसारको उक्त गाथाओंमें वर्णाविके समान रागादिको क्यों तो पोद्गलिक कहा गया है और क्यों वे व्यवहारनयसे जीवके कहे गये है इसका संक्षेपमें विचार किया"। इस कथनमें भी पूर्वपक्षको कोई विवाद नहीं है। केवल इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जीव आप अपराधी होकर उन्हें करता हुआ भी पुद्गल कर्मके सहयोगसे ही उन्हें करता है, पुद्गल कर्मके सहयोग के बिना कदापि नहीं करता है।
(२) प्रकृतमें उत्तरपनके उक्त शीर्षकसे किये गये कयनकी उपयोगिता न होनेका कारण यह है कि उत्तरपक्षने अपना वह कथन पूर्वपन द्वारा त० १० १० १२ पर किये गये इस कथनको लक्ष्यमें रखकर किया है कि "यद्यपि जीव का परिणमन स्वभाव है तथापि उसके भाव कर्मोदय द्वारा किये जाते है, इसलिये समयसार ५० से ५६ तक की गाथाओंमें यह बतलाया गया है कि रागादि भाव पौद्गलिक हैं और व्यवहारनयसे जीवके है। लेकिन पूर्वपक्षके इस कथनके आधारपर उत्तरपक्षके उक्त कथनकी उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है।
(क) प्रथम तो हमारे कथनका तात्पर्य यह है कि यद्यपि रागाविभाव जीवके ही परिणाम है अर्थात् जीव ही उनका उपादान होनेसे उन रूप परिणमता है परन्तु उनका प्रधान कारण उपादानकारणभूत जीव न होकर जीवको उन रूप परिणत होनेमें सहायता प्रदान करने वाला निमित्त कारणभूत पुद्गलकर्मका उदय है । इसमें हेतु यह है कि ये रागादि भाव उपादानकारणभूत जीबमें तभी तक उत्पन्न होते हैं जब तक उसमें कर्मका उदय विद्यमान रहता है और जब उसमें कर्मके उदयका उस कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर अभाव हो जाता है तब उसमें उन रागादि भावोंका भी अभाव नियमसे हो जाता है।
यद्यपि कार्योत्पत्तिमें उपादानकारणको वास्तविक कारण, यथार्थकारण और मुख्यका माना गया है व निमित्तकारणको व्यवहारकारण, अयथार्थकारण और उपरितकर्ता कहा गया है । परन्तु कहीं तो कार्योत्पत्तिमें उपादानकारण प्रधान होला है और कहीं निमितकारण । जहाँ कार्योत्पतिमें उपादान कारण प्रधान होता है वहाँ उसमें निमित्तकारण गौण होता है और जहाँ कार्योत्पत्तिमें निमित्तकारण प्रधान होता है। वहां उसमें उपाबानकारण गौण होता है। उदाहरणार्थ
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