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पांका-समाधान २ की समीक्षा
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उत्तरपक्ष कार्योत्पत्तिके सम्बन्ध में अनुभवसे सिद्ध, इन्द्रिया त्यक्षसे ज्ञात, तकसे निश्चित और आगमसे प्रसिद्ध इस प्रकारकी कार्य-कारणव्यवस्थाकी उपेक्षा करके कल्पनाओंके श्राकाशमें विचरण करता हत्या तत्वज्ञानकी बात करता है, इससे अधिक विचारशून्यताकी बात और क्या हो सकती है?
उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्य में ही आगे जो यह लिखा है कि 'अध्यापक निमित्त नहीं हुआ' सो यह भी विवादरहित है, क्योंकि पूर्वपक्षकी गान्यता तो यही है कि कार्यरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक योग्यतारूप नित्य उपादान शक्ति के सद्भावमें ही निमितभूत बाह्य सामग्री कार्योत्पत्तिके प्रति सहायक होने रूपसे कार्यकारी हुआ करती है, उसका सद्भाव यदि वस्तुमें न हो तो निमित्तभूत बाल वस्तु महापर अकिंचित्कर ही बनी रहती है ।
वतः मन्दबुद्धि शिष्यमें अध्ययन रूप कार्योत्पत्तिकी स्वाभाविक योग्यता रूप नित्य उपादान शक्तिका अभाव बना हुआ है, अतः अध्यापन क्रिया करते हए अध्यापक के उपस्थित रहनपर भी उस मन्दबुद्धि शिष्य में जब अध्ययनरूप कार्यकी उत्पत्ति हो ही नहीं रही है तो अध्यापककी अध्यापन क्रियाको बाँपर निरर्थक मानने पूर्षपसको क्या आपत्ति हो सकती है ? अर्थात उसे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। इसलिए उत्तरपक्षने अपने उसी वक्तव्यमें आगे जो यह लिखा है कि 'जिस कार्यको लक्ष्यमें रखकर अपरपक्षने यहाँ दोष दिया है, बस्सुप्तः उस कार्यका शिष्ध उस समय उपादान ही नहीं था। यही कारण है कि अध्यापन क्रिया में रत अध्यापकके होने पर भी वह निमित्त व्यवहारके अयोग्य ही बना रहा ।' तो यह अनावश्यक सिद्ध हो जाता है, क्योंकि पूर्वपक्षने जो दोष दिया है उसके साथ इसका कोई विरोध नहीं है। विरोध तो तब होता जब पूर्वपक्ष कार्योत्पत्तिमें उगादानको महत्व न देकर केवल निमित्तको महत्व देता। वह तो कार्योत्पत्तिमें उपादान और निमित्त दोनोंको ही अपने-अपने रूपमें महत्व देता है। जैसा कि उसने (पूर्वपक्षने) त. च. पृ० ८२ पर उत्तरपक्षके अन्यतम प्रतिनिधि पं० फलचन्दजीके वर्णी ग्रन्थमालासे प्रकाशित तत्वार्थसूत्र सम्बन्धी कथनका उद्धरण देकर स्पष्ट क्रिया है । उनका यह उद्धरण निम्न प्रकार है
- 'जो कारण स्वयं कार्यरूप परिणम जाता है वह उपादानकारण कहा जाता है । किन्तु ऐसा नियम है कि प्रत्येक कार्य उपादानकारण और निमित्तकारण दोनोंके मेलसे होता है, केवल एक कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, छात्र सुबोध है, पर अध्यापक या पुस्तकका निमित्त न मिले तो वह पद नहीं सकता। यहाँ उपादान है, किन्तु निमित्त नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ। छात्रको अध्यापक या पुस्तकका निमित्त मिल रहा है, पर वह मन्दजु धि है, इसलिए भी वह पढ़ नही सकता । यहाँ निमित्त है, किन्तु उपादान नहीं, इसलिए कार्य नहीं हुआ।
यदि उत्तरपा पूर्व पक्ष द्वारा उद्धत पंक फुलचन्दजीके ही इस कथनपर ध्यान देता तो उसे पूर्वपक्ष की आलोचनाका अवसर नहीं रहता। इतना ही नहीं, उसकी (उत्तरपक्षकी) दृष्ट्रिय प्रकृत विषयकी वास्तविक स्थिति भी आ जाती । मेरा कहना तो इतना है कि उत्तरपक्षने अपने अन्यतम प्रतिनिधि पं० फूलचंदजी की मान्यताको स्वीकार नहीं किया तो वह उत्तका निजी मामला है । इसलिए इस विषयने कुछ न कहकर मैं यहीं कहना चाहता हूँ कि प्रकृत विषयकी समीक्षामें मैंने जो कुछ लिखा है, उससे उत्तरपक्षका अपने वक्तव्यके अन्त में निर्दिष्ट यह कथन कि 'यह कार्य-कारण व्यवस्था है, जो प्रत्येक व्यके परिणामस्वभाधके अनुरूप होनेसे इस तथ्य की पुष्टि करती है कि उपादानके कार्य के सम्मुख होनेपर निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री मिलती ही है,' निरस्त हो जाता है, क्योंकि कार्य-कारणव्यवस्थाका जो रूप प्रमाणसम्मत हो