________________
६२
जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा चारकी प्रवृति होना सम्भव नहीं है । भागममें भी संयोग-सम्बन्धाधित कार्य-कारणभाव व आधाराधेयभाव आदि सम्बन्धोंकी सम्रथा कल्पितरूपताका निषेध पाया जाता है। इस तरह तादाम्प-सम्बन्धके अभावमें भी उक्त आचाराधेयभावको संबोग-सम्बन्धक सदभावको आधारपर यथार्थ मानना योग्य है, कल्पित नहीं । इसी तरह द्रव्यकर्मोदय में उपचरित कर्तत्वकी प्रवृत्तिका भी यही आधार है कि एक तो द्रव्यवोदयमें संसारी मात्माके विकारी भाव और चतुर्गति भ्रमण रूप कार्यके मुख्य कर्तत्वका अभाव है। दूसरे, वह द्रव्यकर्मोदय उक्त संसारी आत्माके विकारभाव तथा चतुतिभ्रमणरूप कार्य में सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्त कारण है। यदि ऐसा न माना जाये और उक्त कार्य के प्रति उस व्यकर्मोदयको सर्वथा अकिचित्कर ही माना जाये, तो उसमें उक्त प्रकारके उपचारित कर्तुत्वको सिद्धि करना असम्भव है अथवा यों कहिये कि उसमें कर्तुत्वफे उपचारकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है ।
उत्तरपक्षने अपने उपयुक्त वक्तव्यके अन्तमें जो यह कथन किया है कि "तभी तो आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा १०७ में ऐसे कपनको व्यवहारनयका वक्तव्य कहा है' इसके विषयमें मेरा कहना है कि समयसार माधा १०८ में जो बहा गया है वह सब कार्योत्पत्ति) निमिराकारणको सहायक होने रूपसे कार्यकारिताकी स्वीकृति के आधारपर ही कहा गया है । यहो उसे और स्पष्ट किया जाता है
समयसार गाथा १०४ में आचार्य कुन्दकन्दन यह उदश्रीष किया है कि आत्मा स्वद्रव्य और स्वगणका पुद्गलकर्ममें आधान नहीं करता है और उन दोनोंको उसमें आधान न करनेपर वह उस पुद्गलकर्मका कर्ता कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो कार्यरूप परिणत होता है वही कर्ता होता है।
इस तरह आत्मामें पुद्गल कर्मके कर्तृत्वका निषेध कर दिये जानेपर समयसार गाथा १०५ के माध्यमसे इस आधारपर आत्मामें पुद्गलकर्मके कर्तृत्वका विधान किया गया है कि यतः जीवके हेतु होनेपर ही बन्धका परिणाम देखा जाता है अत: "जीवने कर्म किया" ऐसा उपचारसे कहा जाता है ।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब तक जीवको पुद्गलके कर्म रूप परिणमनमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी हेतु नहीं माना जायेगा तब तक उरामें (जोवमें) पुद्गल कर्मके कर्तृत्वका उपचार करना सम्भव नहीं होगा।
इसके पश्चात् समयसार गाधा १०६ के माध्यमसे आवार्य कुन्दकुन्दने दृष्टान्त द्वारा इस बातको पुष्ट किया है कि योद्धा ही युद्ध करते है, परन्तु लोकमें युद्धका का राजाको माना जाता है, क्योंकि योद्धा राजाकी प्रेरणासे ही युद्धमें प्रवृत्त होते हैं अर्थात् जब तक राजाज्ञा न हो तब तक योद्धा युद्ध में कदापि प्रवृत १. तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिचरवात
पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपितः सर्वथाप्यनवचत्वात् ।-त श्लो. बा.१० १५१, निर्णयसागरीय
प्रकाशन | २. दव्वगुणस्स य आदा ण कुणादि पागलगम्हि कम्मम्हि ।
तं उभयमवतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ॥१०४॥ समयसार ३. "यः परिणमति स कर्ता".-रामयसार कलश ५१ । ४. जीवम्हि हेमूदे बंघस्स दु पस्सिदूण परिणाम ।
जीवेण कदं कर्म भणदि उवयारमत्तेण ॥१०५।।-समयसार