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शंका-समाधान १ को समीक्षा
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कथन ८९ और उसकी समीक्षा
(८९) उत्तरपक्षने अपने दृष्टिकोणका समर्थन करनेके लिए आगे तक च० पृ० ७१-७२ पर समयसारकी ११८ से १२० तक की गाथाओंकी आचार्य अमृतचंद्रकृत टीका और उसके पश्चात् पृ० ७२ पर इस टीकाको पं० जयचन्द्रजी द्वारा कृत हिन्दी अर्थको उद्धृत किया है।
उस सम्बन्धमें मेरा यह कहना है कि आचार्य अमचन्द्र कृत टीका और उसका पं0 जयचन्द्रजी कृत हिन्दी अर्थ दोनों पदगलके गरिणामी स्वभाव अति पगलकी कर्मरूपस परिणत होनेकी स्वभावभूत योग्यताको सिद्धिके लिए लिखे गये है। उनका यह अभिप्राय कशाप नहीं लिया जा सकता है कि पुद्गलका कर्मरूप परिणत होने की स्वभावभूत योग्यताके आधारगर होनेवाला कर्मरूप परिणमन "स्वयं" अर्थात् निमित्तभूत जीवके सहयोग के बिना अपने आप ही होता है।
तात्पर्य यह है, जैसा कि पूर्व में भी स्पष्ट किया जा चुका है कि समयसारकी ११६ से १२० तककी माथाओं, उनकी आचार्य अमचन्द्र कृत टीका तथा दोनोंने ६० जयचन्द्र जी कृत हिन्दी अर्थका यही अभिप्राय है कि पुद्गलका कर्मरूप परिणमन यद्यपि निमित्त भूत जीवके सहयोगसे ही होता है, परन्तु वह कर्मरूप परिणमन पुद्गल में विद्यमान फर्मरूप परिणत होनेकी स्वभाव भुत योग्यतावे. अनुरूप होता है। ऐसा नहीं समचाना चाहिए कि कर्मरूप परिणत होनेकी स्वभावगत योग्यताका अभाव रहते हुए उसका (पदगलका) बह कर्मरूप परिणमन जीव द्वारा करा दिया है। साथ ही ऐरा मनमाना रहा कि पगलका कर्मरूपसे परिणत होनकी स्वभावभूत योग्यताके अनुरूप होनेवाला वह कर्मरूप परिणमन निमित्तभूत जीवके सह्योगके बिना अपने आप ही होता है । उत्तरपक्ष इस तथ्यको समझ ले तो वह उन गाथाओं, उन माथाओंकी टीका और उनके हिन्दी अर्थ में निहित आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य अमतचन्द्र और पं० जयचन्द्रजीके अभिप्रायको सही रूपमें समझ सकता है। परन्तु वह (उत्तरपक्ष) इस तथ्यको समझानेका प्रयत्न नहीं करता। वह पुद्गलके कर्मरूप परिणत होने में निमित्तभूत जीवको सर्बधा अविविस्कर ही मानता है । यह उसका दुराग्रह ही समझना चाहिए।
पह सच है कि जैन शासनमें पुद्गलके वार्मरूप परिणमनम उस पुद्गल को ही यथार्थकर्ता माना गया है, क्योंकि वही वार्मरूप परिगत होता है। इसे दोनों पक्ष स्वीकार करते हैं और दोनों ही इसे भी स्वीकार करते हैं कि पदमल द्रव्यक उस कर्मरूप परिणमनमें जोच यथार्थ कत्ता नहीं होता, क्योंकि जीव कर्मरूप परिणत नहीं होता । इमलिये वहां पर जीवको दोनों ही पक्ष अयथार्थ पत्ता मानते है। परन्तु इस विषय में दोनों पक्षोंमें मतभेद यह है कि जहाँ पूर्वपक्ष पदमल के उस कर्मरूप परिणमनमें जीवक उस अयथार्थकर्तवको उसके (पदगलके उस कर्मरूप परिमानने सहायक होनेके आवाग्पर कार्यकारी मानता है वहाँ उत्तरपक्ष पुदगल के कर्मभप परिणमनमें जीनके उस अयथार्थकतत्वको उसमें सहायक न होनेके आधापर अकिंचित्कर स्वीकार करता है। अतः सत्वजिज्ञासुओंको निर्णय करना है कि पूर्वपक्षकी मान्यता जनशासन सम्मत है या उत्तरपक्षकी मान्यता जनशासनसम्ममस है। कथन ९० और उसकी समीक्षा
(९०) आगे तक च०ए०७२ पर ही उत्तरपक्षने समयसारकी ११८ मे १२० तककी गाथाओंकी आचार्य अमरचन्द्र कृत टीका और उसके पं0 जयचन्द्रजी कुत हिन्दी अर्थ के आधारपर यह कथन किया है