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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस तरहसे भी यह निर्णीत होता है कि समयसार गाथा ११६ में पटित 'स्वयं' पदका अर्थ 'अपने रूप' ही स्वीकृत करने योग्य है, अपने आप नहीं ।
इस विशेषनके आधारपर अब उत्तरपक्षको ही यह निर्णय करना है कि समयसार, गाया ११६ में पठित 'स्वयं' पदका उसकी मान्यताके अनुसार 'अपने आप' अर्थ स्वीकार किया जाये या पूर्व पक्ष की मान्यता के अनुसार 'अपने रूप' अर्थ स्वीकार किया जाये ?
उत्तरपक्षने उपर्यवत अपने कथनके अन्त में लिखा है-'यदि अपरपक्ष इस आपत्ति को प्रस्तुत करते समय गाषा ११६ के पूर्वार्धपर दृष्पिात कर लेता तो उसके द्वारा यह आपत्ति ही उपस्थित न की गई होती ।"
इसपर मेरा कहना यह है कि गाथा ११६ में परित 'स्वयं गदका अपने रूप अर्थ मान्य करने पर ही समयसारकी ११६ से १२० तककी सभी गाथाओं और उनकी आचार्य अमतचन्द्रकृत टीकाकी सुसंगति बट सकती है, 'अपने आप' अर्थ मान्य करनेपर नहीं। कथन ८८ और उसकी समीक्षा
(८८) आगे तक च पृ० ७१ पर इसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्ष ने यह कथन किया है कि "युद्गल अपने परिणामस्वभावके कारण आप स्वतन्त्र कर्ता होकर जीवन साथ बद्ध है और आप मुक्त होता है । इसोस बद्ध दशामें जीवका संसार बना हआ है। यदि ऐसा न माना जाये और पुदगलको स्वभावसे अपरिणामी माना जाये तो एक तो संसारका अभाव प्राप्त होता है, दूसरे सांरूप' मतका प्रसंग आता है। यह उक्त गाथाओंका तात्पर्य है।"
इसपर मेरा कहना है कि उत्तरपक्षका उक्त गाथाओंका ऐसा तालार्य निकालने में हमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु विचारणीय बात यह है कि उक्त गाथाओंका ग्रह तात्पर्य तभी ग्रहण किया जा सकता है जब समयसार गाथा ११६ में पठित 'स्वयं' पदका पूर्वपक्षके दष्टिकोणके अनुसार 'अपने रूप' अर्थ स्वीकार किया जाये । यतः उत्तरगक्ष उक्त 'स्वयं' पदका 'अपने रूप अर्थ ग्रहण न करके अपने आप ही अर्थ ग्रहण करता है । अतः पूर्वपक्षका कहना है कि उक्त गाथाओंका उक्त तात्पर्य ग्रहण करना उत्तरपक्षके लिए सम्भव नहीं है।
तात्पर्य यह है कि पूर्वपक्ष सक्त गाथाओंका वही तात्पर्य ग्रहण करता है जिस तात्पर्यको उत्तरपक्षने अपने इस वक्तव्यमें स्पष्ट किया है, इसलिए पूर्वपक्षने प्रकृतमें उत्तरपक्ष के साथ इस बात को लेकर विरोध प्रगट नहीं किया है । पूर्वपक्षने प्रकृतमें उत्तरपक्षके साथ इस बातको लेकर ही विरोध प्रगट किया है कि उत्तरपक्ष समयसार गाथा ११६ में पटिस 'स्वयं' पदका 'अपने रूप' अर्थ न करके अपने आप' अर्य ग्रहण करता है जिसका प्राशय यह होता है कि पदगलका कर्मरूप परिणमन जीवके सहयोगके बिना अपने आप ही होता है। इस तरह 'स्वयं' पदके इस अर्थके आधारपर समप्रसार गाथा ११६ और ११७ का वह तात्पर्य सिद्ध नहीं होता जो तात्पर्य उत्तरपक्षने अपने प्रकृत वक्तव्य में दिया है।
स विवेचनसे यह भी निर्णीत होता है कि उन अनुच्छेदये. अन्त में "स्पष्ट है कि यह दूसरी आपत्ति भी प्रकृतमें अपरपक्ष के इष्टार्थको सिद्ध नहीं करती" वह बाथन भी उत्तरपक्ष द्वारा पूर्वपक्ष के अभिप्रायको उपयुक्त प्रकार सही रूपमें न समझ सकनेके आधारपर ही लिखा गया है, जो निष्प्रयोजन होने से उपेक्षणीय है।