________________
शंका १ और उसका समाधान
६१
निमित्तनैमित्तिक योग कैसे बनता है इतना ही सिद्ध होता है, अतएव उससे अन्य अर्थ फलित करना उचित नहीं है। तीसरा उदाहरण प्रवचनसार गाथा २५५ की टीकाका है। किन्तु इस वन्चनको प्रवचनसार गाथा २५४ और उसकी टीकाके प्रकाशमें पढ़ने पर विदित होता है कि इससे उपादानके कार्यकारी पनेका ही समर्थन होता है । रसपाक काल में बीजके समान भूमि फलका स्वयं उपादान भी है इसे अपर पक्ष यदि ध्यान में ले ले तो उसे इस उदाहरण द्वारा आचार्य किस तथ्यको सूचित कर रहे हैं इसका ज्ञान होने में देर न लगे। निमित्तनैमित्तिक भावको अपेक्षा विचार करनेपर इस आगमप्रमाणसे यह विदित होता है कि बीजका जिस रूप अपने कालमें रसपाक होता है तदनुकूल भूमि उसमें निमित्त होती हैं और उपादान -उपादेय भावकी अपेक्षा विचार करने पर इस आगमप्रमाणसे यह विदित होता है कि भूमि बीजके साथ स्वयं उपादान होकर जैसे अपने कालमें इष्टार्थको फलित करतो हे वैसे ही प्रकृतमें जानना चाहिए। स्पष्ट है कि इन तीन आगगप्रमाणोंसे अपर पक्ष मतका समर्थन न होकर हमारे अभिप्रायकी ही पुष्टि होती है। बाह्य सामग्री उपादान कार्यकाल में उपादानकी क्रिया न करके स्वयं उपादान होकर अपनी ही किया करती है, फिर भी बाह्य सामग्री क्रियाकाल में उपादानका वह कार्य होने का योग है, इसलिए बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार किया जाता है। इसे यदि अपर पक्ष निमित्त की हाजिरी समझता है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है । निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्री उपादान के कार्यका अनुरंजन करती है, उपकार करती है, सहायक होती है यह सब करार (तार) का ही नत्तव्य है, निश्चयनयका नहीं। अपने प्रतिबेधक स्वभाव के कारण निश्चयनयकी दृष्टिमें यह प्रतिषेध्य ही है । आशा है कि अपर पक्ष इस तथ्य के प्रकाश पादन कार्य कालमें बाह्य सामग्री में किये गये निमित्त व्यवहारको वास्तविक ( यथार्थ ) माननेका आग्रह छोड़ देगा ।
हमने पचास्तिकाय गाथा ८८ के प्रकाशमें बाह्य सामग्री में किये गये निमित्तव्यवहारको जहाँ दो प्रकारका बतलाया है वहाँ उसी टीका बचनसे इन भेदोंको स्वीकार करनेके कारणका भी पता लग जाता है। जो मुख्यतः अपने क्रिया परिणाम द्वारा या राग और क्रिया परिणाम द्वारा उपादान के कार्य में निमित्त व्यवहार पदवीको धारण करता है उसे जागम में निमित्तकर्ता या हेतुकर्ता कहा गया है। इसीको लोकमें प्रेरक कारण भी कहते हैं और जो उक्त प्रकारके सिवाय अन्य प्रकारसे व्यवहार हेतु होता है उसे आगम में उदासीन निमित्त कहने में आया है । यहीं इन दोनोंमें प्रयोगभेदका मुख्य कारण है। पंचास्तिकायके उक्त वचनसे भी यही सिद्ध होता है। इस प्रकार हमने इन दोनों भेदोंको क्यों स्वीकार किया है, इसका यह स्पष्टीकरण है ।
अपर पक्ष इन दोनोंको स्वीकार करने में उपादान के कार्यभेदको मुख्यता देता है सो उपादानमें कार्य भेद तो दोनोंके सद्भावमें होता है। प्रश्न यह नहीं है, किन्तु प्रश्न यह है कि उस कार्यको वास्तव में कौन करता है ? जिसे आगम में हेतुकर्ता कहा गया है यह कि उपादान ? यदि जिसे आगम में हेतुकर्ता कहा गया है वह करता है तो उसे उपादान ही मानना होगा। किन्तु ऐसा मानना स्वयं अपर पक्ष को भी इष्ट नहीं होगा, इसे हम हृदयसे स्वीकार करते हैं। ऐसी अवस्था में फलित तो यही तथ्य होता है कि उपादानने स्वयं यथार्थ कर्ता होकर अपना कार्य किया और बाह्य सामग्री उसमें व्यवहारसे हेतु हुई। इस अपेक्षासे विचार करने पर बाह्य सामग्रीको व्यवहारहेतुता एक ही प्रकारकी है, दो प्रकारकी नहीं, यह सिद्ध होता है। आचार्य पूज्यपादने इष्टोपदेश में 'नाज्ञो विज्ञत्वमायाति' इत्यादि वचन इसी अभिप्रायसे लिखा है । इस वचन द्वारा