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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा विभावरूप बतलाना तो ठीक है, परन्तु दर्शनोपयोगको स्वभावरूपताके आधारपर परनिरपेक्ष बतलाना ठीक नहीं है और इस तरह निश्चयधर्मको उत्पत्तिको उसको स्वभावरूपताके आधारपर परनिरपेक्ष स्वीकार कर उसमें व्यवहारधर्मके साथ साध्य-साधकभादका निषेध करना ठीक नहीं है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि निश्चमरत्नत्रयस्वरूप निश्चयधर्मकी समानता ज्ञानोपयोगों और दर्शनापयांगोंके साथ नहाकर ज्ञानलब्धियां और दर्शनलब्धियों के साथ है, क्योंकि जीवको भाववती शक्तिका मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर निश्चयरलत्रयस्वरूप निश्चयधर्मके रूपमें विकास होता है व जीवको भाववती शक्तिका ही भानावरणकर्म के क्षयोपशम या क्षयके आधार पर ज्ञानलब्धिके रूपमें तथा दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयके आधारपर दर्शनल विधके रूपमें विकास होता है।
इसी प्रकार यह भी विचारणीय है कि निश्चयधर्म मोहनीकर्मफे उपदाम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक उत्पन्न होता है तथा ज्ञानलब्धि ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम या क्षयपूर्व दर्शनलब्धि दर्शनावरणकर्मके क्षयोपशम या क्षयपूर्वक उत्पन्न होती है, अतः निश्पयधर्म औपशमिक, क्षाधिक और शायोपामिकरूपमें स्वभावभूत भी है और परसापेक्ष भी है। तथा सभी शानलविषयों और सभी दर्शनल ब्धियाँ भी क्षायोपशमिक और क्षायिकरूपमें स्वभावभूत भी है और परसापेक्ष भी हैं।
उत्तरपक्षने स्वभावभूत पर्यायकी उत्पत्तिको परनिरपेक्ष सिद्ध करने के लिए नियमसार गाथा २८ को भी उपस्थित किया है । परन्तु उस गाथासे भी उसके मभीष्टको सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि उस गाथामै महा बतलाया गया है कि पुद्गलको अन्यनिरपेक्ष अखण्ड अणुरूप पर्याय तो स्वभावपर्याय है और स्कंघरूप पर्याय दो आबि अणुओंके संयोगके रूपमें है, इसीलिये विभावपर्याय है। उसमें यह नहीं बतलाया है कि अणुकी उत्पत्ति परनिरपेक्ष होती है, क्योंकि तत्त्वार्यसूत्रके "भेदादणु" (५-२७) सूत्रके अनुसार अणु भी जब स्कंत्रकी भेदनक्रिमाके आधारपर निष्पन्न होता है तो इस स्थिति में उराको उत्पत्तिको परनिरपेक्ष कैसे कहा जा सकता है ? अतः इस गाथाकै आधारपर भी स्वभावभूत निश्चधर्मकी उत्पत्तिको ब्यवहारधर्मनिरपेक्ष नहीं सिद्ध किया जा सकता है।
उत्तरपक्षने अपने इस दौरके अन्तमें जो यह लिखा है कि "तथापि चतुर्थगुणस्थानसे लेकर सविकल्पक दशामें व्यवहारधर्म निश्पयधर्मके साथ रहता है, इसलिये व्यवहारधर्म निश्चधर्मका सहचर होने के कारण सावक (निमित्त) कहा जाता है।" सो व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका सहचर होने के कारण साधक कहा जाता हो,ऐसी बात नहीं है, क्योंकि एक तो जब दोनों सहचर है तो दोनोंमेंसे किसको साध्य और किसको साधक कहा जाये ग्रह निर्णीत करना असंभव है। दूसरे, आगममें निश्चयधर्मकी उत्पत्तिमें सहायक होने के कारण ही व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका साधक कहा गया है। इस विषयको प्रश्नोत्तर एककी समीक्षा स्थान-स्थानपर स्पष्ट किया जा चुका है । एक बात और है कि यद्यपि व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सहचर कहने में कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु उसका इन दोनों घर्मोमें साध्य-साधकभावका प्रतिपादन करनेवाले आगमवचनोंके आधारपर यही अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए कि व्यवहारधर्मके सद्भाव में ही निवनयधर्भकी उत्पत्ति होती है उसके अभावमें नहीं। इस प्रकार सहनर होकर भी दोनोंमें विद्यमान अविनाभावके आधारपर व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका साधक ही सिब होता है। इस तरह इन दोनों धर्मोम स्वीकृत साम्य-साघकभावको कल्पित मानना अयुक्त है।