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________________ १६० जयपुर (खानिया) तवचर्चा और उसको समीक्षा भावलिंग की प्राप्ति असंभव । उसका आशय यह नहीं है कि द्रव्यलिंगको धारण करनेपर जीव नियमसे भावलिगको प्राप्त हो ही जाता है। यह बात ऊपर स्पष्ट की भी जा चुकी है । कथन ७५ और उसकी समीक्षा (७५) उत्तरपक्षने अपने उगी अनुच्छेद में आगे जो यह लिखा है कि "स्पष्ट है कि जो इम्पलिंग भाषलिंगका सहचर हानेवे निमित्त संज्ञाको प्राप्त होता है वह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणामविशुद्धि की वृद्धि के साथ स्वयमेव प्राप्त होता है । आगम में द्रव्यलिंगको मोक्षमार्गका उपचारसे साधक कहा है तो ऐसे ही द्रव्यलिगको कहा है। मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्डके प्रतीक स्वरूप द्रव्यलिंगको नहीं" । सो उत्तरपक्षका यह कथन पूर्व के लिए निम्नलिखित कारणोंके आधारपर विवादग्रस्त हूं— (१) उत्तरपक्ष द्रव्यलिंगको भावलिंगका मात्र सहचर मानता है जबकि पूर्वपक्ष द्रव्यलिंगको भावलिंग के प्रगट होने में सहायक मानता है। (२) उत्तरपक्षका कहना है कि जो द्रव्यलिंग भावलिंगका सहचर होनेसे निमित संज्ञाश प्राप्त होता है वह मिलाया नहीं जाता, किन्तु परिणामविशुद्धिके साथ स्वयमेव प्राप्त होता है। इसके विपरीत पूर्वपक्षका कहना है कि द्रव्यलिंग पूर्वोक्त प्रकार मन, वचन और कायके समन्वित अवलम्बनपूर्वक मोक्षके अनुकूल पुरुषार्थ के रूपमें जीव द्वारा धारण किया जाता है और तब उसकी सहायतासे जीव में परिणाम विशुद्धि प्रगट होती है । (३) उत्तरपक्षका कहना है कि "आगम में प्रचलिंगको जो मोक्षमार्गका उपचारसे साधक कहा है तो ऐसे ही द्रव्यलिंगको कहा है" । सो इस कथन में उसका अभिप्राय यह है कि दयलिंग सहचर होनेके कारण भावलिगका उपचाररो अर्थात् कथन मात्र रूपमें यानी अकिचित्कररूपमें ही साधक माना जाता है जबकि पूर्वपक्षका कहना है कि द्रव्यलिंग भावलिगका सहकारी रूपसे कार्यकारी होकर ही साधक होता है । उसे जो उपचारसे साधक माना जाता है उसका आधार यह है कि यह भावलिंग की तरह केवल आत्माश्रित न होकर मन, वचन और का समन्वित सहयोग से होने वाले आत्मपुरुषार्थ रूप होता है । । (४) उत्तरपक्षका यह भी कहना है कि मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्ड के प्रतीक स्वरूप द्रव्पलिंगको मोक्षमार्गका साधक नहीं कहा जाता है परन्तु पूर्वपक्षका कहना है कि मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य क्रियाकाण्डको प्रयलिंग कहना ही अयुक्त है। उसे तो कुलिंग ही कहा जा सकता है, क्योंकि द्रव्यलिंग तो जीवके उस पुरुषार्थका नाम है जो योगत्रयके समन्वित अवलम्बनपूर्वक मोक्षके अनुकूल पुरुषार्थके रूपमें किया जाता है । अभव्य जोव जिस प्रकार के द्रव्य लिंग के आधारपर स्वर्गादि शुभ गतिको प्राप्त होता है वह ऐसे हो द्रव्यलिंग के आधारपर स्वर्गादि शुभ गतिको प्राप्त होता है जो योगत्रय के समन्वित अवलम्बन. पूर्व मोक्ष के अनुकूल पुरुषार्थके रूपमें उसके द्वारा पालन किया जाता है। मिथ्या अहंकार से पुष्ट हुए द्रव्य - लिंग अर्थात् कुलिंग आधारपर वह अभव्य जीव ही नहीं अपितु भव्य जीव भी कदापि सद्गति प्राप्त करनेका पात्र नहीं होता है । वह अभव्य जीव मोक्ष के अनुकूल उपर्युक्त प्रकारके विशुद्ध द्रव्यलिंगको धारण करके भी जो गोक्ष प्राप्त करनेका अधिकारी नहीं होता उसका कारण तो यह है कि उसमें मोक्ष प्राप्त करनेकी स्वभावभूत योग्यताका अभाव है। इसके अतिरिक्त उसका लक्ष्य उपर्युक्त प्रकारके विशुद्ध द्रव्यलिंगके आधारपर सांसारिक भोगों की ओर ही रहता है। जैसा कि समयसार गाया २७५ से प्रकट है।
SR No.090217
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 1
Original Sutra AuthorVanshidhar Vyakaranacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherLakshmibai Parmarthik Fund Bina MP
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size14 MB
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