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शंका-समाधान १ की समीक्षा तात्पर्य यह है कि बहुतसे मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य जीव जो मिथ्या अहंकारसे पुष्ट हुए बाह्य अणुव्रत और महाव्रतरूप क्रियाकाण्डको धारण कर लिया करते है वे वास्तव में कुलिंगी ही हुआ करते है, उन्हें शुभ गतिकी प्राप्तिका कोई नियम नहीं है। किन्तु ऐसे भी विरले मिथ्यादष्टि भव्य और अभव्य जीव होते है जो मन, वचन और कागके समन्वित अवलम्बनपूर्वक मोक्षके लिये अनुकुल बाह्य अणुमत और महाव्रतरूप क्रियाकाण्डको अर्थात् दन्यलिङ्गको धारण कर नियमसे शुभ गतिको प्राप्त होते है तथा इसी प्रकारके द्रव्यलिंगको धारण करने वाले उन चिरले भन्य जीवोंमसे विरले भव्य जीव ऐसे होते हैं जो मोक्ष प्राप्तिकी उत्कट भावना-- से उसी द्रव्यलिंगके आधारपर उन-उन कर्मोका यथायोग्य उपशम, क्षय गौर क्षयोपशम कर निश्चय या भाव सम्यग्दष्टि, निश्चय या भान देशविरत व निश्चय या भाव सर्वविरत होते हए अन्तम मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
इस तरह द्रव्पलिंगके विषयमें उत्तरपक्ष और पूर्वपाकी जो दृष्टियां है उनमें पूर्वपक्ष की दृष्टि मागमानुफूल तथा युक्तियुक्त है। उत्तरपक्षनी दृष्टि न तो आगमानुकूल है और न युक्तियुक्त है । तत्वजिज्ञासुओंको इसपर गहराईसे ध्यान देना चाहिये । कथन ७६ और उसकी समीक्षा
(७६) आगे उत्तरपक्षने त च. पृ०६९-७० पर यह कथन किया है कि "अपरपक्षने "युगपत् होते हूँ प्रकाश दीपक ते होई (छहढाला ढाल ४-१)" वचनको उद्धृत कर यह स्वयं ही स्पष्ट कर दिया है कि निश्चयचारियका सहचर द्रश्चलिग ही आगममें व्यवहारनयसे उसका साघन कहा गया है । अतः पूर्वमें धारण किया गया व्यलिंग भावलिंगवा साधन है, अपरपशक इस कथनका महत्व सुतरां कम हो जाता है" ।
इसके विषयमें मैं कहना चाहता है कि मोक्ष प्राप्त करने की उत्कट भावनासे युक्त भव्य जीव सर्वप्रथम उपर्युक्त प्रकारके द्रव्यलिगको चारण करता है और ऐसा विचारकर धारण करता है कि द्रश्यलिंगको धारण करनेपर ही भावलिंगकी प्राप्ति सम्भव है, उसके अभावमें नहीं। इस तरह पूर्वपक्षके "पूर्वमें धारण किया गया द्रव्यलिंग भाव लिंगका साधन है" इस कथनका महत्व कहाँ कम होता है, अपितु वह बढ़ता है । पूर्वपक्षने जो छहढालाके उपर्युक्त वचनका उद्धरण दिया है वह इसलिए नहीं दिया है कि द्रव्यलिंग और भावलिंग नियमरो साथ ही उत्पन्न होते है। उसका कहना तो यह है कि सामान्यतया द्रव्धलिंगको धारण करने के पश्चात भावलिंग होता है। यदि कदाचित उनकी उत्पत्ति साथमें भी हो तो भी दीपक और प्रकाशकी तरह उन दोनोंम निमित्त-नैमित्तिक भावरूप कार्यकारणभाव स्वीकार करना असंमत्त नहीं होगा। इसी तरह सहचर और व्यवहारनयका विषय होनेपर भी निमित्त उपादानकी कार्योत्पत्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी होता है, यह बात हहहालाक उक्त वचनसे भी सिद्ध होती है। कथन ७७ और उसकी समीक्षा
(७७) आगे इसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "थाली भोजनका साधन कहा जाता है, पर . जैसे थालीसे भोजन नहीं किया जा सकता उसी प्रकार अन्य जिन साधनोंका उल्लेख यहाँपर अपरपनने किया है उसके विषय में जान लेना चाहिए । थे यथार्थ साधन नहीं हैं यह उक्त ऋथनका तात्पर्य है। मुख्य साधन वह कहा जाता है जो स्वयं अपनी क्रिया करके कार्यरूप परिणमता है अन्यको यथार्थ साधन कहना कल्पनामात्र है। यह प्रत्यक्षसे ही दिखलाई देता है कि बाह्य सामग्री न तो स्वयं कार्यरूप ही परिणमती है
और न काय द्रव्यकी क्रिया ही करती है ऐसी अवस्थामें उन्हें यथार्थ साधन कहना मार्गमें किसीको लुटता हुआ देखकर "मार्ग लुटता है" इस कथनको यथार्थ मानने के समान ही है"।
सं०-२१