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शंका-समाधान १ की समीक्षा
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इस तरह व्यवहार या व्यसम्बग्दर्शन, देगविरतरूप पबहार या द्रब्यसम्यकचारित्र और सर्वविरतरूप न्यवहार या व्यसम्यकचारित्र क्रमशः निश्चय या भात्र सम्बग्यम, निश्चय या भाव देशचारित्र और निश्चम या भाव सकल चारित्रमें कारण सिद्ध हो जाते हैं। स्वयंभस्तोत्रके "बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरन्स्त्वमाध्यारिमकस्य तपसः परिवहणार्धम्" इत्यादि पद्य से भी यही सिद्ध होता है। किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि उक्त व्यवहार या द्रव्यसम्पम्दर्शन आदिको धारण कर लेनेपर जीव नियमसे निश्चय या भावसम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त हो जाता है, क्योंकि उक्त व्यवहार या द्रव्यसम्यग्दर्शन आदि निश्चय या भाव मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्यके भी गम्भव है। इतना ही नहीं, निश्चय या भाव मिथ्यादष्टि भव्य जीवोंमेंसे विरले जीव ही द्रव्य या व्यवहार सम्यग्दर्शन आदिक आधारपर निश्चय या भाव सम्यग्दर्शन आदिको प्राप्त होते हैं जिनके अन्तःकरणमें उनो बलगे मोक्ष प्राप्त करने की उत्कट भावना जागृत हो जाती है अर्थात् करणलब्धिको प्राप्त कर जो परमार्थ (आत्मकल्याण) की ओर जाते है। तथा उनको धारण कर जिनकी भावना सांसारिक ध्रोगोंकी रहा करती है देशभ गतिको प्राप्त होते हए भी संमार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं और जो जीव उन्हें मन, वचन और कायसे समन्वयपूर्वक नहीं धारण करके "मनमें कुछ और रचनमें कुछ और तथा करे कुछ और" को कहावतको चरितार्थ करते हुए धारण करसे है वे अपने इस पाखंडी रूपके कारण हमेशा दुर्गतिके ही पात्र बने रहते हैं। समयसारका "किलश्यन्तां स्वयमेव दावारतरैः" इत्यादि कलश १४२ व "तम्हा जहित्तु लिगे" इत्यादि समयसार गाथा ४११ ये दोनों ग्रही उपदेश देते हैं कि ध्यवहार या द्रव्यसम्यग्दर्शन आदिको एक तो पाग्तण्डरूपमें धारण न करके मन, वचन और कायके समन्वयपूर्वक घारण करो और दूसरे, सांसारिक भोगोंकी आकांक्षासे घारण न कर आत्मकल्याणकी भावनासे ही उन्हें धारण करो।
इस प्रकार उत्तरपक्षका त• च० ० ६९ पर निर्दिष्ट "इसमे स्पष्ट ज्ञात होता है कि परमदीतराग चारित्रकी प्राप्तिका साक्षात् मार्ग एक पात्र स्वभाव सम्मुख हो तन्मय होकर परिणमना ही है। इसके सिवाय अन्य सब निमित्त मात्र है" | यह कथन तभी विवाद रहित हो सकता है जब उत्तरपक्ष निमित्तभूत व्यवहार पा द्रव्य सम्यग्दर्शन आदिको उसकी प्राप्तिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी माननेके लिए तैयार हो
उत्तरपक्ष निमितभूत व्यवहार या द्रव्य सम्पग्दर्शन आदिको उसकी प्राप्ति में सहायक होने रूपसे कार्यकारी न मानकर सहायक त होने रूपसे अकिंचित्कर ही मानता है । अतएव उत्तरपक्षके साथ पूर्वपक्षको विवाद है। कथन ७४ और उसकी समीक्षा
(७४) उत्तरपक्षने त० ८० पृ०६९ गर ही आगे यह कथन क्रिया है.--''अपरपक्षका कहना है कि भावलिङ्ग होनेगे पूर्व द्रव्यलिंगफो तो उसकी उत्पत्ति के लिए कारणरूपसे मिलाया जाता है"। किन्तु अपरपक्षका यह कथन इसी प्रान्त ठहरता है कि एक व्यलिंगी साधु आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एकपूर्व कोटि काल तक द्रव्यलिंगको धारण वारके भी उस द्वारा एक क्षण के लिए भी भावलिंग धारण नहीं कर पाता और आत्माके सन्मुख हुआ एक गृहस्थ परिणामयिशुद्धिकी वृद्धि के साथ बाह्य में निम्रन्थ होकर अन्तर्मुहूर्त में छपकश्रेणीका अधिकारी होता है"। सो उत्तरपक्षका इस कथनके आधारपर पूर्वपशके "भावलिंग होनेसे पूर्व द्रयलिंगको तो उसकी उत्पत्तिक लिए काररूपसे मिलाया जाता है। इस कथनको भ्रान्त कहना असंगत
पक्षका उस कथनसे यह आशय है कि जब तक व्यलिंग धारण नहीं किया जायेगा तक तक
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