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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
इस विषय में उत्तरपक्ष ने जो द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयोंकी दृष्टिसे नित्यता और अनित्यताके विकरूप प्रस्तुत किये हैं उनकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पूर्वपक्ष भी उत्तरपक्षके समान जैन दर्शनकी इस व्यवस्थासे अपरिचित नहीं है।
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वास्तव में उत्तरपक्षका वर्षा सर्वत्र ऐसा
है कि प्रकृतकी उपेक्षा करके अप्रकृत की ओर जानेका किसी-न-किसी बहाने उसने सदा प्रयत्न किया है और उस अप्रकृत विषयको उसने इस रूपमें प्रस्तुत करनेको श्रेष्टा की है जैसे पूर्वपक्ष उस विषयसे सर्वथा अनभिज्ञ हो 1 विरोधमें इसी प्रकार के
और भी कथन किये हैं जिनकी
उत्तरपक्ष ने अपने तृतीय दौर में पूर्वपक्ष यहाँ क्रमशः समीक्षा की जाती है ।
कथन १ और उसकी समीक्षा
(१) उत्तरपक्षने तत्त्वचर्चा पृष्ठ ३४ पर लिखा है कि "अपरपक्षने जयघवला १-५६ के वचनको उद्भुत कर जो यह प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक कार्य बाह्याभ्यन्तर साम्रगीकी समग्रतामें होता है, सो इसका हमने कहां निषेध किया है। रागादि भावकी उत्पत्ति में कर्मकी निमित्तताको जैसा अपरपक्ष स्वीकार करता हैं उसी प्रकार हम भी स्वीकार करते हैं । विवाद इसमें नहीं हूं।"
इसकी समीक्षामें कहा जा सकता है कि बात वास्तव में ऐसी नहीं है जैसी उत्तरपक्षने अपने उपर्युक्त वक्तव्यमें कही है, क्योंकि वैसी बात कहनेपर भी वह रागादि भावकी उत्पत्ति में द्रव्यकर्मके उदयको सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण न मानकर सहायक न होने रूपसे ऑर्केचिरकर निमित्तकारण ही मानता जबकि पूर्वपक्ष उसे वहाँपर सहायक होने रूपसे कार्यकारी निमित्तकारण ही मानता है, जो आगमसम्मत है व उत्तरपक्षकी मान्यता आगमविरुद्ध है, इसे पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है।
कथन २ और उसकी समीक्षा
(२) उत्तरपक्षने वहीं पर आगे लिखा है- " किन्तु विवाद इसमें है कि परद्रव्यकी विवक्षित पर्यायको निमित्तकर दूसरे द्रव्यमें जो कार्य होता है उसका यथार्थ कर्त्ता कौन है" ?
इसकी समीक्षा इस प्रकार है-पूर्व और उत्तर दोनों पक्षोंके मध्य विवाद इस बातका नहीं है कि उक्त रागादि भाषका यथार्थ कर्ता कोन है, क्योंकि पूर्व में कहा जा चुका है और उत्तरपक्ष भी इससे अनभिज्ञ नहीं है कि परद्रव्यकी विवक्षित पर्यायको निमित्तकर दूसरे द्रव्यमें जो कार्य होता है उसका यथार्थ कर्ता उत्तरपक्षके समान पूर्वपक्षकी मान्यतामें भी वही द्रव्य होता है जिस द्रम्प में वह कार्य उत्पन्न होता है या जो द्रव्य उस कार्यरूप परिणत होता है। जिस द्रव्यको निमित्तकर यह कार्य होता है उसे पूर्वपक्ष भी उस कार्यका उत्तरपक्षके समान अयथार्थ कर्ता मानता है। इस तरह दोनों पक्षोंके मध्य प्रकृतमें जो विवाद है वह किसको यथार्थकर्ता माना जाये, यह न होकर इस बातका है कि जहाँ उत्तरपक्ष निमित्तकारणभूत वस्तुके उस अयथार्थ कर्तृत्वको कार्योत्पत्ति के प्रति सहायक न होने के आधारपर अकिंचित्कर स्वीकार करता है वहां पूर्वपक्ष उसके उस अयथार्थकत्वको कार्योत्पतिके प्रति सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी स्वीकार करता है। दोनों पक्षोंकी परस्पर विरोधी इन मान्यताओं में पूर्वपक्षकी मान्यता आगमसम्मत है, उत्तरपक्षकी मान्यता आगमसम्मत नहीं है, इसे भी स्पष्ट किया जा चुका है।