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शंका-समाधान १ की समीक्षा
१२९ क्योंकि एक द्रव्यके गुण-धर्मका दूसरे द्रव्यमें संक्रमण नहीं होता । ऐसी अवस्थामें दूसरा पक्ष ही स्वीकार करना पड़ता है"। इसके आगे इसी अनुच्छेदमें उत्तरपक्षने लिखा है कि "समयसार माथा ८०-८२को आत्मख्याति टीकामें "निमित्तीकृत्य" पदका प्रयोग इसी अभिप्रायसे किया गया है। अन्य तथ्य दसरेके कार्य में स्वयं निमित्त नहीं है। किन्तु अन्य द्रव्यको लक्ष्यकर-अवलम्बनकर अन्य जिस द्रश्यका परिणाम होता है उसकी अपेक्षा गरें प्रेरकनिमितन्यवहार नि नाना! पुदगलमा अपनी विशिष्ट स्पर्शपर्यायके कारण दूसरेका सम्पर्क करके अपनी उपादानशक्तिके बलसे जिसका सम्पर्क किया है उसके समान फर्मरूपसे परिणम आता है और जीव अपने कषायके कारण दूसरेको लक्ष्य करके अपनी उपादान शक्ति के बलसे जिसको लक्ष्य किया है वैसा रागपरिणाम अपनेमें उत्पन्न कर लेता है। यही संसार और तदनुरूप कर्मबन्धका बीज है" | इसके आगे उसी अनच्छेदम उत्तरपक्षने लिखा है कि "यही कारण है कि प्रत्येक मोक्षार्थीको आत्मस्वभावको लक्ष्यमें लेनका उपदेश' आगममें दिया गया है। इस लिए प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि प्रत्येक उपादानको कार्य में जो वैशिष्ट्य आता है उसे अपनी आन्तरिक योग्यतावश स्वयं उपादान ही उत्पन्न करता है, बाह्य सामग्री नहीं । फिर भी कालप्रत्यासत्तिवश क्रियाको और परिणामको सदृशता देखकर जिसके लक्ष्यसे वह परिणाम होता है उसमें निमित्तम्यवहार किया जाता है । अन्य द्रव्यके कार्य में प्रेरक निमित्तव्यवहार करनेकी यह सार्थकता है"। आगे उसी अनुच्छेदके अन्त में उत्तरपक्षने लिखा है कि "इसके सिवाय अपरपक्षने इसके सम्बन्धमें अन्य जो कुछ भी लिखा है वह यथार्थ नहीं है"। आगे इन सबकी समीक्षा को जाती है
दोनों हो पा उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें बाद्य सामग्रीको निमित्त स्वीकार करते है और दोनों ही पक्ष मानते हैं कि बाह्य सामग्रीको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त स्वीकर करनेका यह आशय नहीं है कि निमित्तभूत बाह्म सामनोके गुण-धर्म उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें प्रविष्ट हो जाते है, प्रत्युत दोनों पक्षोंकी मान्यता है कि कार्यरूप परिणमन उपादानका ही होता है और वह उपादानमें स्वभावतः विद्यमान कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यताके अनुरूप होता है। किन्तु उत्तरपक्ष अपने वक्तव्यमें आगे जो यह कहता है कि "अन्य द्रव्यको लक्ष्यकर-आलम्बनकर अन्य जिस द्रव्यका परिणमन होता है उसकी अपेक्षा उसमें प्रेरक निमित्त व्यवहार किया जाता है"। सो उत्तरपक्ष अपने इस कथनका यदि यह आशय ग्रहण करता है कि उपादान अपना कार्यरूप परिणमन निमित्तभृत बाह्य सामग्रोरुप न करके अपनेरूप ही करता है, परन्तु निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको लक्ष्यकर-आलम्बनकर अर्थात् सहयोगसे करता है तो ऐसा स्वीकार करने में भी पूर्वपक्षको कोई आपत्ति नहीं है । लेकिन वास्तवमें बात यह है कि उत्तरपक्ष अपने उक्त कथनके
आधारपर उपादानकी कार्यरूप परिणति में निमित्तकारणभत बाह्य सामग्रीको सर्वथा अकिंचित्कर मान लेना चाहता है, इसलिये ही पूर्वपक्षको उसके उक्त कथनमें आपत्ति है, क्योंकि पूर्वपक्ष इसी आधारपर उपादान की कार्यरूप परिणतिमें निमित्तभूव बाह्य सामग्रीको सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध करता है, जैसा कि पूर्व में आगमप्रमाणोंके आधारपर स्पष्ट किया जा चका है।
उत्तरपक्षने समयसार गाथा ८०-८२ को मात्मख्यातिमें निर्दिष्ट "निमित्तीकृत्य" पदका ही 'लक्ष्य कर" और "मालम्बन कर" यह अर्थ स्वीकार किया है । सो यह भी पूर्वपक्षके लिए विवादको वस्तु नहीं है और इसी आधारपर उसने जो यह लिखा है कि "यही कारण है कि प्रत्येक मोक्षार्थीको आत्मस्वभावको लक्ष्यमें लेनेका उपदेश आगममें दिया गया है"। सो पूर्वपक्षको यह भी विवादका विषय नहीं है । परन्तु रपक्ष जब यह मानता है कि बाह्य सामग्रीको लक्ष्य करवालम्बन कर उपादान अपना कार्यरूप परिणमन
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