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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा
करता है तो ऐसी हालत में निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको उपादानकी कर्यरूप परिणति में सर्वथा अकिचित्कर कैसे कह सकता है ? क्योंकि यदि निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको ऐसी हालत में भी उपादानको कार्यरूप परिगतिमें सर्वधा अकिंचित्कर माना जाता है तो उस निमित्तभूत बाह्य सामग्री के अभाव में भी उपादानका कार्यरूप परिणत होनेका प्रसंग उपस्थित हो जावेगा, जो उत्तरपक्षको भी मान्य नहीं है, क्योंकि उसकी भी यही मान्यता हूँ कि उपादानकी कार्यरूप परिणति निमित्तभूत बाह्य सामग्री के योग में हुआ करती हैं। दूसरी बात यह है कि उपादान तो जड़ और चेतन दोनों ही प्रकारके होते हैं। लेकिन जिस प्रकार चेतन उपादान निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका आलम्बन लेनेका बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ कर सकता है उस प्रकार जड़ उपादान तो उसका आलम्बन लेनेका बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ नहीं कर सकता, इसलिए यही मानना थेयस्कर है कि निमित्तभूत बाह्य सामग्रीका बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक अर्थात् प्राकृतिक ढंग से समागम मिलनेपर ही उपादानको कार्यरूप परिणति हुआ करती है। इस तरह उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें प्रेरक और उदासीन दोनों प्रकार से निमित्तभूत बाह्य सामग्रीको सहायक होने रूपसे कार्यकारिता ही सिद्ध होती है। उत्तरपक्षको इसपर ध्यान देना चाहिए।
उत्तरपक्ष ने अपने उक्त वक्तव्य में यह भी कहा है कि "प्रत्येक उपादान के कार्य जो वैशिष्ट्य आता है उसे अपनी आन्तरिक योग्यतावश स्वयं उपादान हो उत्पन्न करता है" मो उत्तरपक्ष इराका यदि यह आशय लेता है कि वह वैशिष्ट्य उपादानकी आन्तरिक योग्यताका हो परिणाम है तब तो पूर्वपक्षको इसमें कोई विवाद नहीं है, लेकिन इसका वह यदि इस रूपमें आशय लेता है कि वह वैशिष्ट्य प्रेरक निर्मित्तसूज बाबाममी के उपादान में अपने आप ही आ जाता है तो यह पूर्वपक्षको मान्य नहीं और न युक्त है, क्योंकि वह वैशिष्टय उपादानकी आन्तरिक योग्यताका परिणाम होते हुए भी अनुकूल प्रेरक निमित्तभूत बाह्य सामग्रीकी सहायता मिलने पर ही उपादान में आता है। पूज्यपाद आदि आचार्योंके साथ आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचंद्रका भी यही दृष्टिकोण है। भले ही उत्तरपक्ष उसे माने या न माने, क्योंकि यह उसकी मर्जीकी बात है ।
उत्तरपक्षने अपने उक्त वक्तव्यके अन्तमें जो यह लिखा है कि "इसके सिवाय अपरपक्षने इसके सम्बन्धमें अन्य जो कुछ भी लिखा है वह यथार्थ नहीं है ।" सो उसका यह लिखना भी मिथ्या है, क्योंकि वह उसने आगमको तोड़-मरोड़ कर या उसके अभिप्रायको नहीं रामज्ञकर ही लिखा है । तत्त्वजिज्ञासुओं को स्वयं इसका निर्णय करना चाहिए ।
कथन ४६ और उसकी समीक्षा
(४६) उत्तरपशने त० च० पृ० ६२ पर ही आगे यह कथन किया है कि "हमने जो यह लिखा है कि प्रेरक निमित्तके बलसे किसी द्रव्यके कार्यको आगे-पीछे कभी भी नहीं किया जा सकता है वह यथार्थ लिखा है, क्योंकि उपादानके अभाव में जबकि बाह्य सामग्री में प्रेरक निमित्त व्यवहार भी नहीं किया जा सकता हैं तो उसके द्वारा कार्यको आगे-पीछे किया जाना तो अत्यन्त ही असम्भव है ।" सो कार्य तो उपादानशक्तिके सद्भाव में ही होता है। मैं इसी प्रश्नोत्तरके द्वितीय दौरको समीक्षा में इस सम्बन्ध में विस्तारसे यह स्पष्ट कर आया हूँ कि प्रेरक निमित्तके बलसे उपादानशक्तिविशिष्ट किसी भी द्रव्यके कार्यको आगे-पीछे कभी भी किम्ा जा सकता है। अतः इस विषय में यहाँ और अधिक लिखना आवश्यक नहीं है। यहाँ उत्तरपक्षने जो यह लिखा है कि "क्योंकि उपादानके अभाव में जबकि बाह्य सामग्री में निमित्तम्पवहार भी नहीं किया जा