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शंका-समाधान १ को समीक्षा सकता है तो उसके द्वारा कार्यक्रो आगे-पोछे किया जाना तो अस्पन्त ही असम्भव है।" सो उसका यह लिखना निरर्थक है, क्योंकि उपादानकारणभूत मिट्टीसे घटकी उत्पत्ति हो रही हो या नहीं हो रही हो, फिर भी कुम्भकार उसमें प्रेरक निमित्त होता है यह जानकारी होना जब असम्भव नहीं है तो 'प्रेरक निमित्तके बलसे कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है' यह निर्णय करना कैसे असम्भव हो सकता है ? इस जानकारी के आधारपर ही लोकमें प्रेरक निमित्तोंको जटाया जाता है और उनके बलले कार्यको आगे-पीछे करने या न करनेकी चेष्टा की जाती है तथा उसमें सफलता भी मिलती देखी जाती है। इस बातको उत्तरपक्ष न जानता हो या वह ऐसी चेष्टा न करता हो, ऐसी बात नहीं है। कथन ४७ और उसकी समीक्षा
(४७अपगे इगी अनुचन्द्र में उत्तरपक्षने लिखा है कि "कर्मकी नानारूपता भावसंसारके उपाशनकी नानास्पताको तथा भूमिको विपरीतता बीजकी सी आदानताको ही सूचित करती है" आदि । सो इसमें बिवाद नहीं है। परन्तु विचारणीय यह है कि ऐसी सूचना सभी प्राप्त हो सकती है जबकि कर्मको भावसंसारकी उत्पत्तिमें और भमिकी विपरीतताको बीजकी विपरीत परिणतिमें सहायक होने रूपसे निमित्त मान लिया जाये । दूसरे, पूर्वपक्षका कहना तो यह है कि वस्तुमें वैसी उपादानता (कार्यरूप परिणति होनेकी योग्यता ) विद्यमान रहमपर भी उसफी व्यक्ति प्रेरकनिमित्तका सहयोग मिलनेपर ही होती है, इस नियमको उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसका कारण यह है कि समस्त लोक, जिसमें उत्तरपक्ष भी सम्मिलित है, उपादानकी विधक्षित कार्यरूप परिणतिके लिए सतत अनुकूल प्रेरक और उदासीनरूपसे निमित्तभूत वाद्य सामग्रीका अवलम्बन लिया करता है। आगममें उपादानको कार्यरूप परिणतिके विषय में दोनों प्रकारके निमित्तोंको जो स्थान दिया गया है वह भी इसी अभिप्रायसे दिया गया है। यह बात दूसरा है कि वस्तुमें उपादान शक्तिका अभाव रहनेपर कोई भी निमित्त उस शक्तिको उत्पन्न नहीं कर सकता है। लेकिन यह भी सत्य है कि अनुकूल निमित्तभूत वस्तुका सहयोग मिले बिना उपादानमें विवक्षित कार्योत्पत्ति देखनेमें नहीं आती है और ऐसा उत्तरपक्ष भी जानता है । इसलिए वह भी कार्यसिद्धिके लिए सतत अनुकूल निमित्तोंका अवलम्बन लेने की चेष्टा करता है। इतना अवश्य है कि निमित्त-नैमित्तिक भावकी यह व्यवस्था स्वपरप्रत्यय कार्योत्पत्ति ही लागू होती है, स्थप्रत्यय कार्योत्पत्ति में नहीं । यतः वस्तुके षड्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमनसे अतिरिक्त राभो परिणमनोंका अन्तर्भाव स्वपरप्रत्वय कार्योम होता है। अतएव कार्यसिद्धिके लिए उत्तरपक्ष भी समस्त लोककी तरह अनुकुल निमित्तोंकी उपेक्षा नहीं कर सकता है और न करता है, भले ही इसके विरोध वह कुछ भी कहता रहे। उत्तरपक्ष यह भी मानता है कि प्रतिकूल निमित्त मिलनेपर कार्य भी प्रतिकूल होता है, इसलिए वह कार्यसिद्धिके लिए सतत अनुकूल निमित्तोंको मिलानेकी ही चेष्टा किया करता है। कथन ४८ और उसकी समीक्षा
(४८) आगे त० च० ० ६२ पर ही उत्तरपक्षने अपनी मान्यताके समर्थनको दृष्टिसे पूर्वपक्षकी मान्यताके विरोधमें यह लिखा है कि ''अपरपक्षने यहाँपर शीतऋतु, कपड़ा और दर्जीका उदाहरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि कपड़ेसे बननेवाले कोट आदिके समान जितने भी कार्य होते हैं उनमें एक मात्र व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका ही बोलबाला है ।" तथा इसके आगे उसने लिखा है कि "इस सम्बन्धमें अपरपक्ष अपने एकांत आग्रहवश क्या लिखता है उसपर ध्यान दीजिए।" और ऐसा लिखकर