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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा उसने पूर्वपक्षके कथनके कुछ अंशको भी त० च० पृ० ६३ पर उद्धृत किया है। फिर उसने उसकी मालीचनामें आगे लिखा है कि “यह प्रकृतमें अपरपक्षके वक्तव्यका कुछ अंया है। इस द्वारा अपरपक्ष यह बतलाना चाहता है कि अनन्त पुदगल परमाणुओंका अपने-अपने स्पर्श विशेषके कारण संश्लेष सम्बन्ध होकर जो आहारवर्गणाओंकी निष्पत्ति हुई और उनका कार्यास व्यंजन पर्यायरूपसे परिणमन होकर जुलाहेके विकल्प और योगको निमित्तकर जो वस्त्र बना उस वस्त्रकी कोट आदि पर्याय दर्जीके योग और विकल्पपर निर्भर है कि जब चाहे वह उसकी कोट पर्यायका निष्पादन करे न करना चाहे न करे। जो व्यवहारनयसे उस वस्त्रका स्वामी है वह भी अपनी मानुसार उत्सम नामः २१ प्र कार समला है। परनका अगला रूप क्या हो, यह वस्त्रपर निर्भर न होकर दर्जी और स्वामी आदिकी इच्छापर ही निर्भर हैं। ऐसे सब कार्योंमें एकमात्र निमित्तका ही बोलबाला है, उपादानका नहीं। अपरपक्षके कयनका आशय यह है कि विवक्षित कार्य परिणामके योग्य उपादानमें योग्यता हो, परन्त सहकारी कारणसामग्रीका योग न हो या आगे-पीछे हो, तो उसीके अनुसार कार्य होगा। किन्तु अपरपक्षका यह सब कथन कार्यकारणपरम्पराके सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि जिसे व्यवहारनयसे सहकारी सामग्री कहते है उस यदि तपादान कारणके समान कार्यका यथार्थकारण मान लिया जाता है तो कार्यको जैसे उपादानसे उत्पन्न होने के कारण तत्-स्वरूप माना गया है वैसे ही उसे सहकारी सामग्री स्वरूप भी मानना पड़ता है, अन्यथा सहकारी सामग्रीमें यथार्थकारणता नहीं बन सकती। दूसरे दर्शनमें सन्निकर्षको प्रमाण माना गया है । किन्तु जैनाचार्योंने उस मान्यताका खण्डन यह कहकर किया है कि सल्लिकर्ष दोमे होनेके कारण उसका फल अर्थाधिगम दोनोंको प्राप्त होना चाहिए । (सर्वार्थसिद्धि अ० १० १०) वैसे ही एक कार्यकी कारणता यदि दोमें यथार्थ मानी जाती है तो कार्यको भी उभयरूप माननेका प्रसंग आता है। अतः कार्य उभयरूप नहीं होता, अतः अपरपक्षको सहकारी सामग्रीको निर्विवाद रूपसे उपरितकारण मान लेना चाहिए।"
भामें इसकी समीक्षा की जाती है
इतः पूर्व बार-बार कहा जा चुका है कि जिस घस्तुमें जिस प्रकारके कार्यरूप परिणत होनेको योग्यता विद्यमान रहती है वही वस्तु उस कार्यरूप परिणत होती है, इसलिए वह वस्तु उस कार्यको यथार्थ कारण है, इस बातको दोनों पक्ष मानते हैं और दोनों पक्ष यह भी मानते हैं कि जिस बाह्य वस्तुका योग मिलनेपर वह उपाशनभूत वस्तु कार्यरूप परिणत होती है वह बाध्य वस्तु वहाँ उपचारित या व्यवहारकारण होती है, इसलिए ये दोनों बातें दोनों पक्षोंको मान्य हैं । दोनों पक्षोंके मध्य विवादग्रस्त बात केवल यह है कि निमित्तका योग रहनेपर ही उपादानकी कार्यरूप परिणति होती है इस बातको मानते हए भी उत्तरपश निमित्तको उपादानझी कार्यरूप परिणति में सर्वथा अकिंचित्कर मान लेना चाहता है जबकि पूर्वपक्ष निमित्तका योग रहने पर ही उगादानकी कार्य रूप परिणति होती है, इस आधारपर निमित्तका उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी मानता है। उपादानकी कार्यरूप परिणति में निमित्तको अकिचिकर मानने उत्तरपक्षका कहना यह है कि निमित्त का योग रहनेपर हो उपादानकी कार्यरूप परिणति होता है। इस मान्यताका आवाय यह है कि जब उपादान अपनी विवक्षित कार्यरूप परिणति करता है तब अतुकल निमित्त भी वहां नियमसे उपस्थित रहता है परन्तु उस समय निमित्त और उपादान दोनों स्वतन्त्र रूपसे अपनाअपना ही कार्य किया करते हैं, इसलिए निमित्तको किसी भी हालत में उपादानकी कार्यरुप परिणतिमें कार्यकारी नहीं माना जा सकता है। इसके विपरीत निमित्तको उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें कार्यकारी मानने में