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शंका-समाधान १ की समीक्षा
पूर्व पक्षका कहना यह है कि निमित्त का योग रहनेपर ही उपादानको कार्य रूप परिणति होती है । इस मान्यताका आशय यह है कि जब सुपादानको अपनी विवक्षित कार्यरूप परिणतिके अनुकूल निमित्तका योग मिलता है तभी उपादानकी वह विवक्षित कार्यरूप परिणति होती है और न मिलनेपर नहीं होती है। इस तरह इस व्यवस्थाके अनुसार निमित्त उपादानको कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने रूपसे कार्यकारी सिद्ध होता है।
यद्यपि यह बात सत्य है कि निमित्त और उपादान दोनों अपना-अपना ही कार्य करते हैं, परन्तु कार्योत्पत्तिमै जिस प्रकार कार्यरूप परिणत होनेरूपसे उपादानको वास्तविक कारण माना जाना है उसी प्रकार वहाँपर उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होतेरूपसे यदि निमित्त को वास्तविक कारण न मानकर केवल कल्पनारोपित कारण माना जाये तो जीवकी संसार और मोक्षकी व्यवस्था भंग हो जायेगी, क्योकि संसार और मोक्षकी व्यवस्था ध्यवहाररूप होनेसे उत्तरपक्षकी दष्टिम अवास्तविक ही सिद्ध होती है। यदि कहा जाये कि संसार और मोश्चकप परिणमन जीवके ही परिणमन है, इसलिए वास्तविक हैं तो भी गुद्ध निश्चयनयको अपेक्षासे तो वे जीवके नहीं है। व्यवहारनयसे ही वे उसके व्यवहत होते हैं, क्योंकि शुद्ध निश्चयनयसे अनादि, अनिधन, स्वाधित और अखण्ड शुद्ध (पर संयोगरहित) पारिणामिक भाव रूप तत्व ही वास्तविक है। अत: जीवकी संसार और मोक्षरूप परिणतियां व्यवनारनयसे ही सिद्ध होती हैं। इस तरह वे व्यवहाररूप होनेपर भी कल्पनारोपित न होकर वास्तविक है। अतः निमित्तकारणता व्यवहाररूप होते हुए भी उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होने के रूपमें वास्तविक मानना ही युक्तिसंगत है, कल्पनारोपित मानना युक्तिसंगत नहीं है। फिर भी यदि कहा जाये कि जीवको संसार और मोक्षरूप परिजतिया व्यवहाररूप होकर भी स्व-रूपके आधारपर वास्तविक है तो निमित्तकारण व्यवहाररूप होकर भी सहायक होने रूप पररूपके माधारपर वास्तविक मानना कसे असंगत कहा जा सकता है? वस्तुतः जहाँ संसार मोर मोक्षरूप परिणतिर्वा आत्माकी ही परिणतियां होनेसे उनरूप परिणत होनेवाला उपादानकारणभूत आत्मा स्वाश्मयताके आवारवर निश्चयकारणके रूपमें निश्चयनयका विषय सिद्ध होता है वहीं वे मात्माकी परिणतियाँ पौद्गलिक कर्मके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और श्वयोशम पूर्वक होनेसे उसमें सहायक होनेवाला निमित्तकारणभूत कर्म पराश्रयताके आधारपर व्यवहारकारणके रूपमें व्यवहारनयका विषय सिद्ध होता है।
इस तरह निमित्त उपादानकी कार्यरूप परिणतिम सहायक होने रूपसे वास्तविक सिद्ध हो जानेपर उसकी (निमितकी) वहाँ पर (उपायानकी कार्यरूप परिणतिमे) कार्यकारिता ही सिद्ध होती है, अकिंचित्करता नहीं । अतः इस आधारपर पूर्वपक्षका यह कहना कि "उपादान अर्थात् कार्यरूप परिणत होने की योग्यता विशिष्ट वस्तुकी कार्यरूप परिणति में निमित्तका बोलबाला है" असंगत नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उपादानमें विवक्षित कार्यरूप परिणत होनकी योग्यता स्वभावतः विद्यमान रहने पर भी उसकी वह परिणति तभी होती है जब उसे अनुकुल प्रेरक और सक्षसीन दोनों प्रकारके निमित्तोंका सहयोग प्राप्त होता है और तब तक वह परिणति रुकी रहती है जब तक उसे उनका सह्योग प्राप्त नहीं होता।
यहाँ उत्तरपक्ष यह कह सकता है कि उपादान में कार्यरूप परिणत होनेकी योग्यता स्वभावतः विद्यमान रहनेपर भी उसकी वह कार्यरूप परिणति केवल उस स्वाभाविक योग्यताके आधारपर न होकर तभी होती है जब यह उपादान अपनी कार्यान्यहित पूर्वपर्यायको धारण कर लेता है तथा उपादानके उस