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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा वीतरागता और मोक्षप्राप्तिका निश्चय हेतु नहीं है सो पूर्वपक्षने भी उसे निश्चय हेतु न मानकर व्यवहार हेतु ही माना है । परन्तु उत्तरपक्ष पदि शुभ भावोंकी व्यवहारहेतुताको कथनमात्र कहता है तो उसका ऐसा कहना सत्य नहीं है, बयोंकि प्रश्नोत्तर एककी समीक्षामें यह बात स्पष्ट कर दी गई है कि व्यवहार हेतु भी कार्योत्पत्ति में अपने ढंगसे कार्यकारी ही होता है, अकिंचित्कर नहीं बना रहता । उत्तरपक्षने अपने कथन में जो यह कहा है कि आग में कर्मचेतनाका अन्तर्भाव ज्ञान चेतनामें नहीं बतलाया है । सो पूर्वपक्षने कर्मचेतनाका ज्ञानचेतनामें अन्तर्भाव कहां बतलाया है। पूर्वपक्षने त• च पृ० १०६ पर तो यह कहा है कि सम्यग्दृष्टिका दमा आदि शुभ भाव वर्मनेतना न मानकर ज्ञानचेतना माना गया है।" जिसका अभिप्राय यही होता है कि आगममें चेतनाके जो तीन भेद बतलाये गये है उनमेंसे एकेन्द्रियसे असंझीपंचेन्द्रिय तकके जीवोंके तो कर्मफर रहती है, संजीपंनेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके कर्मचेतना रहती है और सम्यग्दृष्टि जीवोंके ज्ञानचेतना रहती है। अत: उत्तरपक्षका उपस कथन श्विकपूर्ण नहीं है। इस तरह चेतनाको लक्ष्यमें लेकर उत्तरपक्षने जितना विवेचन किया है वह अयुक्त एवं अनावश्यक है।
उत्तरपक्षने शागे त० च० १० १२५ रो १२८ तक जितना विवेचन किया है वह सब विवेचन उसने जीवकी क्रियावती शकिके परिणमनस्वरूप अशुभरी निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म तथा भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप आत्माके शुद्ध स्वभावभुत निपचयधर्मके स्वरूप भेदको नहीं समझकर ही किया है 1 फलतः उत्तरपक्षको वहांपर उरावे स्वयंके द्वारा उपस्थित और पूर्वपक्ष द्वारा उपस्थित आगम प्रमार्णोका अर्थ करनेमें बहुत खींचातानी करनी पड़ी है । वास्तव में प्रकृत प्रश्न के समाधानका आधार यही हो सकता है कि बदयाम अशुभ प्रवृत्तिके रूपों जीयकी क्रियावती शक्तिका परिणमन ही पापभूत अश्या है, दयारूप शुभ प्रवृत्ति के रूपमें जीवको क्रियावती शक्तिका परिणमन ही पुण्यभूत दया है तथा अदयाप अशुभ प्रवृतिसे निवृत्तिपूर्वक घयारूप शुभमें प्रवृत्ति के रूपमें जीवको क्रियावती शक्तिका परिणमन ही व्यवहारधर्मरूप दया है । इनके अतिरिक्त क्रोधकमों के उदयमें जीवको भावबती शक्तिके परिणमनस्वरूप जो अदयारूप धिभाव परिणमन होता है यह भावरूप अदया है और उन क्रोधकमौके यथायोग्य उपशम क्षय या क्षयोपशमपूर्वक जीवकी भाववती शक्तिका जो दयारूप स्थभावपरिणाम होता है वह भावरूप दया है । ऐसा समझ लेनेपर ही तत्वका निर्णम किया जा सकता है, अन्यथा नहीं । तथा प्रकृत प्रश्नका समाधान भी इसी आधारपर हो सकता है।
प्रश्नोत्तर ४ की समीक्षा १. प्रश्नोत्तर ४ को सामान्य समीक्षा
पूर्वपक्षका प्रश्न-व्यवहारधर्भ निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? त० च पृ० १२९ ।
उत्तरपक्ष का उत्तर-निश्चय रत्नत्रयस्वरूप निश्चमधर्मकी उत्पत्तिकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो व्यवहारधर्म निश्चवधर्ममें साधक नहीं है, क्योंकि निश्चयधर्मकी उत्पत्ति पनिरपेक्ष होती है। त० व. पृ० १२९ । धर्मका लक्षण
___वस्तुविज्ञान (द्रव्यानुयोग) को दृष्टिसे "वत्युसहाओ धम्मो" इस आगम वचन के अनुसार धर्म यद्यपि आत्माके स्वत:सिद्ध स्वभावका नाम है, परन्तु अध्यात्म विज्ञान (करणानुयोग और चरणानुयोग) की दृष्टिसे